Wednesday, November 5, 2008

सरकार दे रही 'दवा', सुधार की गुंजाइश कहां!

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली November 04, 2008
भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा नकद आरक्षी अनुपात (सीआरआर) और रेपो रेट में कमी किए जाने और इस्पात की कीमतों में बड़ी कंपनियों द्वारा कीमत घटाए जाने के बाद भी दिल्ली और एनसीआर इलाके में मकान की कीमतों में कमी के आसार नहीं दिख रहे हैं।
लैंडक्राफ्ट डेवलपर्स के निदेशक मनु गर्ग ने बताया, 'मकान आदि के निर्माण में प्रति वर्ग फीट 4.5 से 5 किलोग्राम इस्पात का इस्तेमाल किया जाता है। अगर इस्पात की कीमतों में 6000 रुपये प्रति टन की कमी होती है, तो इसका मतलब है कि आवासीय निर्माण में 25 से 30 रुपये प्रति वर्ग फीट की बचत होगी। लागत मूल्य में इस बचत से डेवलपरों को थोड़ी बहुत राहत जरूर मिलेगी।'
रियल एस्टेट कंपनी एसवीपी के सीईओ सुनील जिंदल ने कहा, 'इस्पात की कीमतों में हुई कमी से बुनियादी ढांचा निर्माण क्षेत्र को फायदा होगा। रियल एस्टेट डेवलपरों को इससे बहुत असर पड़ने की उम्मीद नहीं है। इससे लागत मूल्य में महज 1-2 फीसदी की कमी होगी, जिसके आधार पर मकान आदि की कीमतों में कोई बहुत बड़ा अंतर देखने को नहीं मिलेगा।'
गर्ग ने बताया, 'आरबीआई द्वारा दरों में कटौती, एक स्वागत योग्य कदम है। अगर ग्राहकों के लिए फायदेमंद बनाने का लक्ष्य है, तो इसके लिए बैंको को होम लोन की दर कम करनी होगी। साथ ही बैंकों को सस्ती दरों पर वित्त पोषण करने संबंधी बातों पर ध्यान देना होगा'

Friday, September 26, 2008

निवेश के लिए डायनामाइट है यह घटना

मजदूरों की अपनी समस्याएं हो सकती हैं लेकिन किसी भी सूरत में किसी की भी हत्या को जायज नहीं ठहराया जा सकता
कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 24, 2008

दुनिया की सर्वाधिक तेजी से उभर रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक है भारत। बीते वर्षो के दौरान उद्योगों का तेली से फैलाव हुआ है। लेकिन औद्योगीकरण की चुनौतियों और जिम्मेदारी से अनजान देश अभी तक विकास का फलसफा नहीं सीख सका है और इसका खामियाजा भुगत रहा है पूरा देश। इस सिलसिले की ताजा कड़ी है ग्रेटर नोएडा स्थित कंपनी ग्रेजियोनी ट्रांसमिजियोनी की दुर्घटना।

क्या है पूरा मामला

गत सोमवार को 360 करोड़ रुपये की इटली की सहयोगी कंपनी ग्रेजियोनी ट्रांसमिजियोनी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) और इंडिया हेड ललित किशोर चौधरी की हत्या बर्खास्त कर्मचारियों द्वारा कर दी गई।

लगभग 125 बर्खास्त कर्मचारी अपने हाथ में लोहे की छड़ लेकर घुसे और कंपनी के अंदर तोड़ फोड़ मचाने लगे। जब ललित ने उन लोगों को शांत होने के लिए कहा, तो वे उन पर सरियों से वार करने लगे। घायल चौधरी को कैलाश अस्पताल ले जाया गया, जहां उनकी मौत हो गई।

किस तरह के कदम उठाए जा सकते थे

चौधरी जिस कंपनी में थे, वह 360 करोड़ रुपये की कंपनी है और अगर ऐसी कंपनियों में ये वारदात हो सकती है, तो आप अन्य उद्योगों की सुरक्षा व्यवस्था का अंदाजा लगा सकते हैं। व्यापारियों का मानना है कि उद्योगों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों की सुरक्षा के लिए सीआईएसएफ के जवानों की तैनाती की
जानी चाहिए।

नोएडा की प्रमुख औद्योगिक इकाइयां

नोएडा में लगभग 8956 औद्योगिक इकाइयां काम कर रही है, जिसमें फेडर्स लॉयड, एचसीएल-एचपी, इंडो कॉप, टी-सीरिज, बीपीएल सानयो, पैनासोनिक, सैमसंग, फीनिक्स, एसजीएस-थॉमसन, टाटा यूनिसिस, टीसीएस, मॉजर बेयर, एवरेडी आदि प्रमुख हैं।

इतनी बड़ी बड़ी कंपनियों का हब होने के बावजूद नोएडा में सुरक्षा व्यवस्था नदारद है। इस घटना के बाद इस औद्योगिक शहर में काफी संशय का माहौल है। सभी कंपनियां असुरक्षा और सरकारी उदासीनता को लेकर पसोपेश में है।

नोएडा में बड़ी संख्या में औद्योगिक प्रतिष्ठान हैं, इसके बावजूद सरकार उचित सुरक्षा व्यवस्था मुहैया नहीं कराती है। ये कंपनियां या तो निजी सुरक्षा एजेंसियों का सहारा लेती है या फिर राम भरोसे ही इनका काम चलता है।

सीईओ की हत्या ने औद्योगिक महकमे में सनसनी फैला दी है। वहां के कुछ व्यापारियों का कहना है कि पुलिस तो नोएडा में शांति व्यवस्था बनाए रखने में बिल्कुल नाकाम रही है। सीईओ की हत्या से नोएडा में काफी दहशत का माहौल है।

क्या हो सकती है कार्रवाई

सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता रोहित पांडेय ने बताया कि गिरफ्तार लोगों पर हत्या का आरोप तय किए जाएंगे और धारा 302 के तहत कार्रवाई की जाएगी।

इस घटना में षडयंत्र का मामला बनेगा और उन पर धारा 123 के तहत आरोप तय किए जाएंगे। जिन लोगों के नाम एफआईआर में होंगे, उनकी सजा का निर्णय मुकदमे के आधार पर किया जाएगा।

माली जो बाग उजाड़े, उसे...

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 25, 2008
नाम बड़े और दर्शन छोटे...नोएडा और ग्रेटर नोएडा यानी गौतमबुध्दनगर। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में पड़ने वाला यह जिला औद्योगिक मानचित्र पर अलग ही रुतबा रखता है।
मगर अफसोस, शायद नादान राज्य सरकारें इस रुतबे की देश और सूबे के आर्थिक विकास के लिए अहमियत का अंदाजा नहीं लगा पाईं।

नहीं तो वे देसी-विदेशी कंपनियों की भारी-भरकम फौज वाले इस क्षेत्र के लिए चिड़िया के चुग्गे सरीखी सुरक्षा व्यवस्था करके इसे यूं राम भरोसे न छोड़ देतीं।

यकीन नहीं आता तो जरा मुलाहिजा फरमाइए कि यहां कुल कितने उद्योग-धंधे और आबादी है और इनकी सुरक्षा के लिए क्या सरकारी इंतजामात हैं।

अगर सिर्फ ग्रेटर नोएडा की बात की जाए, जहां एक सीईओ की खुलेआम और बर्बरतापूर्ण ढंग से हत्या की गई तो वहां 20 से अधिक बड़ी कंपनियां हैं। इनमें यामहा एस्कॉट्र्स, एशियन पेंट्स, एलजी, न्यू हॉलेंड, मोजर बेयर, एसटी, माइक्रोसॉफ्ट जैसी महारथी कंपनियां भी शामिल हैं।

इसके अलावा यहां 500 छोटी-बड़ी कंपनियां हैं। जबकि नोएडा में लगभग छह हजार औद्योगिक इकाइयां हैं, जिनमें करीब 250 जानी-मानी कंपनियों की इकाइयां हैं।

और अब जरा गौर फरमाइए , समूचे जिले की सुरक्षा व्यवस्था पर। जिले की पांच लाख की आबादी के लिए और 200 किलोमीटर परिक्षेत्र के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने कुल 2400 पुलिसकर्मियों को तैनात किया है।

अब कोई यह सरकार से यह पूछे कि आबादी और उद्योग धंधों के अनुपात में ये मुट्ठी भर पुलिसकर्मी भला हजारों औद्योगिक इकाइयों में होने वाले श्रमिक असंतोष से कैसे निबटेंगे, जबकि उनके पास इतने बड़े इलाके में होने वाले अन्य अपराधों के रोकथाम और कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी भी है।

यही वजह है कि इन इकाइयों में आए दिन होने वाली मजदूर हड़ताल कई बार खूनी रंग भी अख्तियार कर लेती है।

अगर इटली की कंपनी की ताजा शर्मनाक घटना को मजदूरों का अकस्मात उपजा असंतोष मान भी लिया जाए तो कुछ अरसा पहले हुए देवू मोटर्स कार्यालय पर कर्मचारियों के हमले को क्या माना जाए, जिसके चलते यहां कंपनी को अपनी इकाई बंद करनी पड़ी थी।

इस घटना में भी 125 कर्मचारी और 10 पुलिसकर्मी घायल हो गए थे। इसी तरह 2004 में भी जेपी ग्रीन के मजदूरों ने नोएडा स्थित कार्यालय पर धावा बोला था। इसमें भी एक आदमी की मौत हो गई थी।

यही नहीं, अगस्त 2008 में सरकार द्वारा अधिग्रहित जमीन को लेकर किसानों ने जो तीव्र विरोध-प्रदर्शन किया था, उसमें भी 4 लोग मारे गए थे और 50 लोग घायल हुए थे।

उद्यमियों की मानें तो पिछले पांच साल में 300 से भी कम इकाइयां यहां लगी है। जबकि लगभग दो हजार से अधिक कंपनियां यहां से पलायन कर चुकी हैं।

भारतीय उद्योग संघ केगौतमबुद्ध नगर चैप्टर के अध्यक्ष जितेंद्र पारिख ने बताया कि कई कंपनियों ने काफी उम्मीदों के साथ यहां उद्योग लगाना शुरू किया था, लेकिन भविष्य सुरक्षित नजर नही आ रहा है।

Monday, September 22, 2008

केंद्र बेचेगा 'महंगा' गेहूं, पर खरीदेगा कौन

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 21, 2008
खाद्यान्न प्रबंधन पर सरकार की मुश्किलें बढ़ गई है। सरकार ने पहले तो बाजार की स्थिति का बिना अध्ययन किए 1000 रुपये प्रति क्विंटल गेहूं की खरीद की।

अब उसे खुले बाजारों में सस्ती दर पर बेचने की योजना बनाई जा रही है। लेकिन आलम यह है कि देश के लगभग सभी राज्यों में इस समय गेहूं निर्धारित समर्थन मूल्य से भी कम पर खुले बाजार में बिक रहा है। ऐसे में अंदाजा लग सकता है कि इस महंगे सरकारी गेहूं को खरीदेगा कौन? वैसे खाद्य मंत्रालय ने घाटा सहकर भी इस गेहूं को बेचने का निर्णय लिया है।

उसने इस गेहूं की अलग अलग राज्यों में भिन्न भिन्न कीमतें घोषित की हैं।उत्तर प्रदेश में अलीगढ़, कानपुर, फैजाबाद की मंडियों में गेहूं का भाव 1055 रुपये प्रति क्विंटल है।

पंजाब की खन्ना मंडी में गेहूं 970 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बिक रहा है जबकि यहां के लिए केंद्र की दर बाजार भाव से ज्यादा यानी 1021 रुपये प्रति क्विंटल है। गुजरात की राजकोट मंडी में गेहूं की कीमत औसतन 1000 रुपये प्रति क्विंटल है और केंद्र ने यहां गेहूं 1088 रुपये प्रति क्विंटल बेचने का निर्णय लिया है।

दक्षिण भारत में कर्नाटक की नारकुंडा मंडी में गेहूं का भाव 1140 रुपये प्रति क्विंटल है और केंद्र ने यहां के लिए 1160 रुपये का भाव निर्धारित किया है। मध्यप्रदेश की पथरिया मंडी में गेहूं की कीमत 975 रुपये से 1000 रुपये प्रति क्विंटल के बीच है, जबकि केंद्र ने यहां के लिए 1075 रुपये का भाव निर्धारित किया है।

जाहिर है कि राज्यों की मंडियों में केंद्र द्वारा निर्धारित भाव से कम पर गेहूं बिक रहा है।
केंद्र ने अप्रैल-जून में 1000 रुपये प्रति क्विंटल के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गेहूं खरीदा था। उस खरीद भाव में आढ़ती कमीशन, लदाई, ढुलाई और भंडारण का भी खर्च जोड़ने पर यह कीमत लगभग 1250 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गई थी।

लेकिन जब राज्यों की मंडियों में इससे कम दाम पर गेहूं बिक रहा था, तो केंद्र की यह मजबूरी हो गई कि वह भी कम दामों पर ही गेहूं बेचे। वैसे भी, खुले बाजार में गेहूं पर्याप्त मात्रा में है, इसलिए भी केंद्र पर कम दाम पर गेहूं बेचने का दबाव है।

खाद्य और कृषि मंत्री शरद पवार ने जुलाई में 60 लाख टन गेहूं खुले बाजारों में बेचने का निर्णय लिया था, जिसे कैबिनेट ने भी मंजूरी दे दी थी। लेकिन राज्यों की मंडियों में कम दाम पर गेहूं बिकने से केंद्र की मुसीबत बढ़ गई और उसे कम दामों पर इन मंडियों में गेहूं बेचने को मजबूर होना पड़ा।

सदर बाजार ग्रेन मर्चेंट एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष ओमप्रकाश जैन ने बताया कि सरकार जो कदम उठा रही है, वह सिर्फ राजनीतिक चोंचले हैं। दरअसल सरकार के इस कदम से किसानों को तात्कालिक लाभ पहुंचेगा, लेकिन इसे ज्यादा दिनों तक जारी नही रखा जा सकता है।

Friday, September 19, 2008

पेशेवर कर्मचारी ही बचा पाएंगे रिटेल की चमक

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 17, 2008

रिटेल क्षेत्र में प्रबंधन के हर स्तर पर तंगी का माहौल है। वैसे तो यह क्षेत्र अपना विस्तार काफी तेजी से कर रहा है, लेकिन निचले स्तर से लेकर उच्च स्तर पर दक्ष कर्मचारियों की भारी कमी है।

कॉलेज और अन्य प्रशिक्षण संस्थानों से भी प्रशिक्षुओं की काफी कम संख्या रिटेल क्षेत्र में आ रहे हैं। इसके पीछे एक वजह तो यह बताई जाती है कि इन संस्थानों में जो पाठयक्रम चलाए जाते हैं, वह रिटेल कंपनियों की जरूरतों के अनुसार नही होते हैं। इसी तरह की समस्या बीमा और दूरसंचार क्षेत्रों में भी देखने को मिल रही है।

रिटेल क्षेत्र में जो दूसरी समस्या कर्मचारियों को लेकर आ रही है, वह यह है कि मौजूदा कर्मचारियों में भी अनुभवों की कमी देखने को मिल रही है। वे रिटेल क्षेत्र की जरूरतों से अच्छी तरह से वाकिफ नही होते हैं और इसलिए पूरी दक्षता के साथ काम नही कर पाते हैं।

बहुत सारी कंपनियों ने तो अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने के लिए अपने स्तर से ही प्रयास करना शुरू कर दिया है। ये कंपनियां इस तरह के कदम इसलिए उठा रही है, क्योंकि आज दक्ष कर्मचारियों और मानव संसाधन का होना काफी जरूरी होता है।

पेंटालून रिटेल के एचआर प्रमुख संजय जोग ने बिजनेस स्टैंडर्ड को टेलीफोन पर बताया कि रिटेल क्षेत्र में रोजगार के काफी अवसर उपलब्ध हैं। इस बाबत अब संस्थानों में भी जागरूकता आई है और वे इस क्षेत्र के अनुरूप छात्रों को तैयार भी कर रहे हैं। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अभी इस क्षेत्र के लिए दक्ष प्रोफेशनल की कमी है।

यह बात भी तय है कि अगर आपको आज के प्रोफेशनल जमाने में टिकना और बेहतर प्रदर्शन करना है, तो आपके पास कुशल और स्मार्ट मानव संसाधन का रहना बहुत जरूरी है। आज रिटेल क्षेत्र की हर बड़ी कंपनियां अपने एचआर (मानव संसाधन) नीतियों में परिवर्तन ला रही है और दक्षता प्रशिक्षण के लिए अपने कुल बजट का 2 से 5 प्रतिशत निवेश कर रही है।

फोर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट, नई दिल्ली, की निदेशक डॉ. सीमा संघी कहती हैं कि आजकल काफी छात्र रिटेल मैनेजमेंट की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। हालांकि रिटेल क्षेत्र में आईटी और बीपीओ क्षेत्रों की तरह काफी मात्रा में कमाने के अवसर सीमित होते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि इन क्षेत्रों के व्यापार की प्रवृति बिक्री और लाभ पर आधारित होती है। इस तरह इन क्षेत्रों के लिए दक्ष मानव संसाधन होना आज की जरूरत हो गई है।

इसलिए इन कंपनियों को इस तरह के कार्य मानक बनाने होंगे ताकि कर्मचारी अपने को इन क्षेत्रों से जोड़ पाएं और विकास में भागीदार बन सके। पांच वर्षों में संगठित रिटेल क्षेत्र में 15 से 20 लाख रोजगार सृजन होने की संभावना है। इसी अवधि में रिटेल क्षेत्र में 40 फीसदी विकास की भी उम्मीद है। इसलिए रिटेल क्षेत्र के लिए निचले स्तर से लेकर प्रबंधन के ऊपरी स्तर तक दक्ष प्रोफेशनल का चयन जरूरी है।

Wednesday, September 17, 2008

अंतरराष्ट्रीय तेल फर्मों को डाला चारा

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 17, 2008



भारत सरकार देश के तेल और गैस क्षेत्र में बड़ी अंतरराष्ट्रीय तेल मार्केटिंग कंपनियों को निवेश करने के लिए आकर्षित करने की पूरी कोशिश कर रही है।

लेकिन इस दिशा में कोई बड़ा निवेश संभव नहीं हो पा रहा है। इसलिए देश के पेट्रोलियम क्षेत्र में खोज और उत्खनन के लिए मौजूद नई अन्वेषण लाइसेंसिंग नीति (नेल्प) में बदलाव की प्रक्रिया पर विचार किया जा रहा है।

भारत चाहता है कि एक्सॉन मोबिल, टोटाल, ब्रिटिश पेट्रोलियम जैसी विदेशी कंपनियां देश के तेल और गैस क्षेत्र में निवेश करें। सरकारी सूत्रों का कहना है कि नेल्प के सातवें दौर में हालांकि विदेशी कंपनियों ने काफी रुचि दिखाई है, लेकिन इसके बावजूद विदेशी कंपनियों का निवेश बहुत कम रहा है।

पेट्रोलियम मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार नियमों में बदलाव के कई कारण हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में अस्थिर तेल की कीमतें इसमें से एक है। इसलिए नेल्प के नियम इस प्रकार होने चाहिए कि इन तेल कंपनियों को बेहतर रिटर्न सुनिश्चित कराया जा सके।

सूत्रों का यह मानना है कि जब तक अंतरराष्ट्रीय तेल कंपनियां निवेश के लिए उत्सुक नहीं होगी, तब तक अपेक्षित परिणाम नजर नहीं आएगा। पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर ने भी विदेशी कंपनियों को आकर्षित करने की संभावनाओं का पता लगाने के लिए विक्रम मेहता की अध्यक्षता वाली एक समिति का गठन किया था।

Tuesday, September 16, 2008

खुशहाली पर आतंकी नजर

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 14, 2008



रविवार को दिल्ली के आईटीओ चौराहे पर लगा एक सरकारी विज्ञापन हर राहगीर को मुंह चिढ़ा रहा था। विज्ञापन में बड़े अक्षरों में लिखा है कि 'चारों तरफ जगमगा रही है दिल्ली।'

जी तो हमारा भी यही चाह रहा था कि लिख दें कि बम धमाकों से बेफिक्र रही दिल्ली। लेकिन हकीकत यह है कि लोग फिर से उठ खड़े तो हुए हैं, हिम्मत की भी र्कोई कमी नहीं है। चारो तरफ दूसरों की मदद का जोरदार जज्बा दिखा है, लेकिन शहर में हर शख्स डरा सहमा सा है।

दिल्ली के रीगल सिनेमा के पास रविवार दोपहर तक लोगों की आवाजाही काफी कम रही। अधिकतर दुकानें बंद थी। रीगल के बगल में श्रीलेदर्स का शोरूम खुला है। लेकिन इक्के दुक्के लोग खरीदारी के लिए दुकान में आ रहे हैं।

श्रीलेदर्स के कनॉट प्लेस के शोरूम के मैनेजर शांतनु ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि आम रविवार की तुलना में इस बार सिर्फ 10 फीसदी लोग खरीदारी के लिए आ रहे हैं। रीगल के बाहर पान-मसाला की रेहड़ी लगाने वाला शिव नारायण तिवारी की दुकान उस कूड़ेदान के बगल में है, जहां शनिवार को जिंदा बम मिला था।

उस वक्त के माहौल का जिक्र करते हुए वह बताता है, चारों तरफ लोगों का हूजूम उमड़ पड़ा था। सभी लोग सेंट्रल पार्क में मदद के लिए भागे जा रहे थे। यहां पर तो सारी दुकानें उस वक्त खाली करा दी गई थी और उस जिंदा बम को डिफ्यूज करने वाली मशीन यहां लगा दी गई थी।

जनपथ बाजार

रविवार को जनपथ बाजार पर भी सन्नाटा पसरा हुआ है। यहां पर आम रविवार को सैकड़ों दुकानें लगती है। कपड़े आदि के सामान रविवार को खरीदने बड़ी संख्या में लोग आते हैं। लेकिन इस रविवार को हालत बिल्कुल विपरीत है।

जनपथ बाजार में रेहड़ी लगाकर कपड़े बेचने वाला राजेश सिंह ने कहा कि नई दिल्ली नगरपालिका परिषद (एनडीएमसी) और दिल्ली पुलिस ने सतर्कता के तौर पर आज बाजार बंद रखने को कहा है। राजेश सिंह बताते हैं कि यहां पर दुकान का किराया 2500 से 3000 रुपये प्रति दिन है और रविवार को दुकान बंद रहने की वजह से व्यापारियों को औसतन 50 से 60 हजार का घाटा हो रहा है।

जनपथ बाजार के बाहर पुलिस बूथ पर काफी संख्या में पुलिस गश्त लगा रहे थे। पुलिस यह मानने को कतई तैयार नही हुए कि शनिवार के हादसे का लोगों पर कोई असर है। लेकिन पुलिस की यह बात तब खोखली साबित हुई, जब जनपथ बाजार के बाहर एक महिला आर के पुरम जाने के लिए ऑटो की तलाश कर रही थी और उसे ऑटो रिक्शा नजर नहीं आ रहा था।

करोल बाग और गफ्फार मार्केट का हाल

करोल बाग में बाबा रामदेव चौक पर (जिसके बगल में धमाका हुआ) अन्य दिनों की तरह रविवार को भी जाम लगा हुआ है। दरअसल घटना स्थल के दोनों तरफ पुलिस ने बैरिकेटिंग कर दिया है और लोगों को आने जाने में काफी परेशानी हो रही है।

इलेक्ट्रॉनिक मार्केट और गफ्फार मार्केट दोनों खुले हुए हैं, लेकिन लोगों की संख्या काफी कम है। एक दुकानदार ने बताया कि आज धंधा पूरी तरह से मंदा है। 10 फीसदी लोग भी नही आ रहे हैं। बाजार की मुख्य सड़क पर गणेश चतुर्थी की विसर्जन यात्रा भी धूमधाम से निकल रही थी।

काफी संख्या में लोग इसमें शामिल थे। यात्रा के संयोजक अनिल का कहना है कि शनिवार का हादसा तो हमने प्रत्यक्ष तौर पर देखा है। लेकिन दिल्ली कभी थमती नही है। आज से हमलोग अपने अपने काम में लग गए हैं।

सरोजिनी नगर

सरोजिनी बाजार की हालत सामान्य है। दोपहर बाद यहां लोगों की संख्या में इजाफा होता गया। यह बाजार भी कभी इन हादसों का गवाह रहा था। आम रविवार की तुलना में बाजार में चहलकदमी कम है। कैपिटल इंपोरियम के मैनेजर रवि बत्रा का कहना है कि धमाके का असर आम लोगों पर है। वे बाहर नही निकल रहे हैं। उन्होंने अगले 1 सप्ताह के भीतर बाजार में फिर से चहल पहल शुरू हो जाने की उम्मीद जताई है।

दहशतगर्दों के सीनों में दहशत पैदा करके ही आतंकवादी वारदातों को रोका जा सकता है - मनीष सिंघल, सिंघल रोडवेज, कानपुर

दिल्ली देश के कारोबार का अड्डा है। दूसरे राज्यों पर भी इसका असर देखने को मिलेगा - श्रीराम चौधरी, जगदम्बा ट्रेडर्स, पटना

संकट की इस घड़ी में व्यापारी समाज देश के साथ खड़ा है। आतंकवादियों का जल्द ही सफाया होगा - बनवारी लाल कंछल, उद्योग प्रदेश उद्योग व्यापार मंडल

Friday, September 12, 2008

अब दिल्ली में भी कसी जाएगी प्रॉपर्टी डीलरों की नकेल

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 09, 2008



शहरी विकास मंत्रालय ने दिल्ली में प्रॉपर्टी सौदे को नियंत्रित करने के लिए प्रॉपर्टी डीलर और कंसल्टेंसी विधेयक का मसौदा लगभग तैयार कर लिया है।

मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि इस बाबत नियमन का दस्तावेज लगभग तैयार है और जल्द ही इसे कैबिनेट की मंजूरी के लिए पेश किया जाएगा। हालांकि दिल्ली में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाला है, इसलिए संभव है कि यह विधेयक अगली सरकार की निगरानी में पेश हो।

पूर्व शहरी विकास राज्य मंत्री अजय माकन ने 2006 में कहा था कि प्रॉपर्टी नियामक के लिए दिल्ली सरकार एक विधेयक लाएगी जो अन्य राज्यों के लिए एक मॉडल होगा। लेकिन आलम यह है कि प्रॉपर्टी डीलरों को नियंत्रित करने के लिए दिल्ली में इस तरह का कोई विधेयक अभी तक नही आ पाया है और पड़ोसी राज्य हरियाणा ने बाजी मार ली है।

हरियाणा विधानसभा ने पिछले मंगलवार को जब हरियाणा प्रॉपर्टी डीलर और कंसल्टेंट विधेयक 2008 पारित किया, तो दिल्ली के सरकारी महकमे में भी हलचल होने लगी। प्रॉपर्टी डीलर नियामक विधेयक न होने की वजह से लोगों को भी काफी परेशानी उठानी पड़ती है। प्रॉपर्टी डीलर किसी भी प्रकार के सौदे का रिकॉर्ड नही रखते हैं।

जब भी कभी किसी प्रॉपर्टी को बेचने या खरीदने की बात डीलर के जरिये होती है, तो वे बतौर कमीशन बड़ी राशि ऐंठते हैं। ज्यादातर मामले में तो खरीदार और विक्रेता दोनों पक्षो से प्रॉपर्टी डीलर कमीशन लेते हैं। जब इस तरह के सौदे में किसी तरह का विवाद उत्पन्न होता है, तो ये प्रॉपर्टी डीलर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। इसके अलावा प्रॉपर्टी डीलरों द्वारा जो कमीशन लिया जाता है, उसकी कोई नियत दर नही होती है।

रियल एस्टेट बाजार में मूल्यों को अपने हिसाब से नियंत्रित करने के लिए प्रॉपर्टी डीलर गलत तरीके का भी इस्तेमाल करते हैं। पहाड़गंज के शर्मा प्रॉपर्टी डीलर एडवाइजर एंड कॉन्ट्रैक्टर के मालिक मानस शर्मा ने बताया कि हमारे यहां हर प्रकार के सौदे के लिए नियत दरें उपलब्ध हैं।

अगर कोई खरीद बिक्री का सौदा 15 लाख से ज्यादा का होता है, तो हमलोग 1 फीसदी कमीशन लेते हैं और इससे कम की खरीद बिक्री पर 2 फीसदी कमीशन लेते हैं। मानस ने कहा कि उन्हें किसी प्रकार के बिल आने से कोई परेशानी नही है। मुझे तो और खुशी होगी कि प्रॉपर्टी डीलिंग के धंधे में जो कुछ गलत लोग आ गए है, उन पर इससे लगाम लगाई जा सकेगी।

दरियागंज के सतीश प्रॉपर्टी के मालिक शशि टंडन ने कहा कानून के आने से कोई फर्क नही पड़ता है। अगर सरकार सच्चे मन से चाहती है कि प्रॉपर्टी के धंधे में गोरखधंधे को रोका जाए, तो उसे इन नियमों को सख्ती से क्रियान्वित करना चाहिए।

Thursday, September 4, 2008

राष्ट्रमंडल खेलों के बहाने संवरने लगा गुड़गांव

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 02, 2008



राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर दिल्ली के साथ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) को भी संवारने की तैयारी जोरों पर है। इस कड़ी में राजधानी से सटा गुड़गांव भी 2010 में नई दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में जुट गया है।

इस बाबत हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (हुडा) डेढ़ हजार करोड़ रुपये खर्च कर गुड़गांव के सौंदर्यीकरण की योजना बना रहा है। 2010 तक शहर में मेट्रो रेल रूट, न्यू पालम विहार खेड़कीदौला तक दूसरा एक्सप्रेस वे, वाटर ट्रीटमेंट प्लांट और कई विश्वस्तरीय होटल बनाए जाएंगे।

गुड़गांव में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कादरपुर स्थित प्रशिक्षण केंद्र में राष्ट्रमंडल खेलों की निशानेबाजी प्रतियोगिता आयोजित होगी। हुडा की प्रशासक जी अनुपमा ने टेलीफोन पर बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि राष्ट्रमंडल खेल तक गुड़गांव को पूरी तरह से सौंदर्यीकृत कर लिया जाएगा और इसे ब्रांड के तौर पर पेश किया जाएगा।

शहर में पार्क, सड़कें, सीवर, पानी, पार्किंग और होटल को सुव्यवस्थित तरीके से निर्मित किया जाएगा। शहर में मास रैपिड ट्रैफिक मैनेजमेंट सिस्टम भी लागू किया जाएगा। इसके लिए सर्वेक्षण की प्रक्रिया भी शुरु हो गई है। शहर में फुट ओवर ब्रिज, फ्लाईओवर, एस्केलेटर फुट ओवर ब्रिज, गोल चक्कर , पार्क आदि के निर्माण स्थल के चयन के लिए विलबर्ड स्मिथ कंसल्टेंसी फर्म के जरिये सर्वेक्षण भी कराया जा रहा है।

उन्होंने कहा कि पार्कों को औद्योगिक इकाइयों के सहयोग से विकसित किया जाएगा। इसके लिए गुड़गांव के औद्योगिक संगठनों से बात भी चल रही है। दिल्ली से आवागमन संपर्क को बेहतर बनाने के लिए डेढ़ सौ मीटर चौड़ी सड़क के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया अंतिम चरण में है।

इन सारी परियोजनाओं के लिए हुडा को राशि उपलब्ध कराई जा चुकी है, जिसका वितरण सितंबर माह से शुरु हो जाएगा। राष्ट्रमंडल खेलों तक एक हजार क्यूसेक क्षमता की एनसीआर चैनल का काम भी पूरा कर लिया जाएगा। इस परियोजना के पूरा हो जाने के बाद गुड़गांव में पानी किल्लत की समस्या खत्म हो जाएगी। हरियाणा की कुल आमदनी का 40 प्रतिशत अकेले गुड़गांव से होता है।

मौसम की बेरुखी से लुट गई खरीफ की बगिया

खरीफ फसल का अंकगणित - बिहार में 150 करोड़ रु. की फसल बर्बाद

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 03, 2008



बिहार में आई विनाशकारी बाढ़ की वजह से 1.25 हेक्टेयर में फैली 150 करोड़ रुपये की फसल बर्बाद हुई है। राज्य कृषि विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि यह आंकड़ा आने वाले दिनों में और बढ़ सकता है।

उन्होंने कहा कि धान और मक्का की फसलें पूरी तरह बर्बाद हो गई है। इसके अलावा दलहन, केला और सब्जियों की बागवानी भी बर्बाद हुए हैं। बर्बादी का आकलन फसल के क्षेत्रफल और बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में औसत उपज के आधार पर किया जा रहा है।

विशेषज्ञों का मानना है कि अगर बाढ़ के बाद खेतों में नमकीन रेत रह जाती है, तो इससे रबी फसल भी प्रभावित हो सकती है। उल्लेखनीय है कि राज्य की मुख्य खरीफ फसलों में चावल और मक्का है जिसकी बुआई जून-जुलाई में शुरू हो जाती है। मगर इस साल सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा में आई बाढ़ से ये फसलें पूरी तरह बर्बाद हो गई हैं।

विश्लेषक मानते हैं कि बिहार के दूसरे इलाके में इसके रकबे को बढ़ाकर इस नुकसान को कमोबेश कम किया जा सकता है। पिछले साल देश में 8 करोड़ 30 लाख टन चावल का उत्पादन हुआ था, जो उससे पिछले साल के 8 करोड़ टन से थोडा ज्यादा था।

मोटे तौर पर भारत में इस साल जून तक 9 करोड़ 30 लाख टन चावल का उत्पादन हुआ है। मगर इस साल बाढ़ की वजह से खरीफ की बुआई में 2 से 3 प्रतिशत की कमी देखी जा सकती है। देश में मक्के का उत्पादन 67 लाख हेक्टेयर में होने का अनुमान है।

मदद की तलाश छोड़ बने मददगार

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली August 31, 2008



बिहार में बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के आम लोग अब राहत कार्य में मदद करने के लिए आगे बढ़ कर आए हैं।

बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के ऐसे इलाके, जहां पानी नहीं घुसा है, वहां के हर घर से पांच रोटी और सब्जी एकत्रित की जा रही है। उसके बाद ये लोग पेड़ों पर कैंप लगाकर बाढ़ में फंसे लोगों को पुकार-पुकार कर खाना भेजने का प्रबंध कर रहे हैं।

खाने के साथ-साथ पीने के पानी की भी व्यवस्था की जा रही है। सहरसा के नजदीक डिस्टीलेशन केंद्र पर पानी को पैक कर सील करवाया जा रहा है और बाढ़ पीड़ितों को पानी मुफ्त में भेजा जा रहा है। सहरसा जिले के निवासी संजय कुमार ने बताया कि बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों के रेलवे स्टेशनों से गुजरने वाली ट्रेनों को रोककर हर बोगी में जा-जाकर बाढ़ पीड़ितों को खाना और पानी पहुंचाया जा रहा है।

छोटा पत्रकार बड़ा पत्रकार

समाज के इन दो वर्गों को कवर करते हुए पत्रकार भी दो श्रेणियों में बंटे हुए हैं. एक है छोटा पत्रकार. बेचारा. चेहरे पर दीन-हीन भाव, पिचके गाल और पेट, कभी कुर्ता तो कभी कंधे पर बैग लटकाए. दुम हिलाते आगे-पीछे घूमते हुए.


एक है बड़ा पत्रकार. चेहरे पर कुलीनता. मोटी तनख्वाहों से पेट और गाल फूलते हुए. कभी कुर्ता पहने तो चंपू बोले वाह सर क्या फैशन है. चार पांच चंपू आगे-पीछे घूमते हुए.


ख़बर भी इन दोनों के अंतर को समझती है. इसलिए छोटा पत्रकार ख़बर के पीछे भागता है. ख़बर बड़े पत्रकार के पीछे भागती है.


बड़ा पत्रकार ख़बर बनाता भी है. छोटा पत्रकार बड़े पत्रकार पर ख़बर लिखकर खुद को धन्य महसूस करता है. बड़े पत्रकार का पार्टियों में जाना, मैय्यत में जाना, नए ढंग से बाल कटवाना सब ख़बर है.


बड़ा पत्रकार पैदा होता है. छोटा पत्रकार छोटी जगह से आकर बड़ा बनने की कोशिश करता है.


बड़े पत्रकार के मुंह में चांदी की चम्मच होती है. वो बड़े स्कूलों में पढ़ने जाता है. शुरू से उसकी ज़बान अंग्रेजी बोलती है. हिंदी में वो सिर्फ़ अपनी कामवाली बाइयों और ड्राइवर से ही बात कर पाता है.


छोटा पत्रकार टाटपट्टियों पर बैठकर पढ़ाई करता है. मास्टरजी की बेंत उसके हाथों को लाल करती है. बारहवीं कक्षा तक फ़ादअ को फ़ादर और विंड को वाइंड कहता है. गुड मॉर्निंग कहने में ही उसके चेहरा शर्म से लाल हो जाता है.


नौकरियां छोटे पत्रकार को दुत्कारती हैं. बड़े पत्रकार को बुलाती हैं. नेता भी बड़े पत्रकार को पूछते हैं. छोटे से पूछते हैं तेरी औकात क्या है.


लेकिन छोटा कभी कभी बड़े काम करने की कोशिश भी करता है. कभी-कभी कर भी जाता है. लेकिन जब बड़ी ख़बर लेकर बड़े पत्रकार के पास जाता है तो बड़े पत्रकार को उसके इरादों पर शक होने लगता है.


कही ये अपनी औकात से बाहर तो नहीं निकल रहा. कहीं ये मेरी जगह लेने की कोशिश तो नहीं कर रहा. अबे ओ हरामी छोटे पत्रकार. अपनी औकात में रह. ये ख़बर अख़बार में नहीं जाएगी.


बड़ा पत्रकार कई बार छोटे को ख़बर का मतलब भी समझाने लगता है. देख छोटे. आज कल न ये समाजसेवी ख़बरों का ज़माना नहीं रहा. भ्रष्टाचार का खुलासा करेगा. अरे वो तो हर जगह है. आज के ज़माने में नई तरह की ख़बरें चलती हैं.


देख छोटे. टीवी चैनल्स को देख. वहां क्या नहीं बिक रहा है. खली चल रहा है. राखी सावंत के लटके-झटके चल रहे हैं. तू इन सबके बीच ये ख़बर कहां से ले आया रे.


लेकिन हुजूर हमें तो यही सिखाया गया. अबे चुप ईडियट. क्या पोंगा पंडितों की बात करता है. देख तेरी इच्छा यही है न कि तू भी बड़ा पत्रकार बने. बड़ी गाड़ी में घूमे. मोटी तनख्वाह पाए. इसलिए जो तूझे सिखाया गया उसको भूल जा. अब जैसा मैं करता हूं वैसा कर तो बड़ा पत्रकार बन जाएगा.


अबे तेरी औकात क्या है छोटे. कहता है बीस साल हो गए पत्रकारिता में. क्या मिला. अरे मिलेगा क्या. बाबाजी का घंटा. हमें देख. दस साल में कहां से कहां पहुंच गए.


छोटा और छोटा हो जाता है. लटका चेहरा लटक कर पैर तक पहुंचता है. घर पहुंचता है तो बीवी की मुस्कान उसे चुड़ैल के अट्टहास की तरह लगती है. कल तक जिस बेटे को सिर आँखों पर रखा उसे लात मार कर बोलता है अबे ओ छोटे की औलाद. तू ज़िंदगी भर छोटे की औलाद ही रहेगा.


Posted by akhilesh sharma

मायावती की तो जान ही ले लेते!

» रात्रि उड़ान के लिए प्रतिबंधित हेलीकॉप्टर उड़ा रहे थे कैबिनेट सेक्रेटरी
» प्रदेश के उड्डयन महकमे में भीषण भ्रष्टाचार, खतरे में वीवीआईपी उड़ानें
» बिना किसी ट्रेनिंग के उड़ा रहे हैं अमेरिकी विमान और हेलीकॉप्टर

एक सितम्बर की रात प्रदेश में एक बड़ा हादसा हो सकता था। जो नौकरशाह मुख्यमंत्री की हिफाजत के प्रति आधिकारिक तौर पर जवाबदेह हैं वे अपनी गैरजिम्मेदाराना हरकतों से उस दिन मुख्यमंत्री मायावती की जान ही ले लेते। वीवीआईपी उड़ान की उच्च संवेदनशीलता के बावजूद उस दिन जिस स्तर की खतरनाक तकनीकी चूक की गई, वह उड्डयन इतिहास का नायाब पन्ना है। जिस सिंगल इंजिन हेलीकॉप्टर पर मुख्यमंत्री मायावती को बैठा कर रात में संत कबीर नगर और फैजाबाद ले जाया गया, उस हेलीकॉप्टर के लिए रात की फ्लाइंग कानूनन प्रतिबंधित है। उसमें रात्रि उड़ान के उपकरण हैं ही नहीं। रात में जब मुख्यमंत्री को लेकर वही हेलीकॉप्टर संत कबीर नगर से उड़ा तो टेक-ऑफ के लिए कारों की बत्तियां जलानी पड़ीं। फिर फैजाबाद में नाइट लैंडिंग का खतरनाक जोखिम उठाया गया। उसके बाद लखनऊ से गए विमान से मायावती वापस लौटीं। बात यहां खत्म नहीं होती। बात यहीं से शुरू होती है। वीवीआईपी उड़ान को लेकर यह जो गैरजिम्मेदाराना कृत्य हुआ वह उत्तर प्रदेश के कैबिनेट सेक्रेटरी शशांक शेखर सिंह ने किया। सिंगल इंजिन वाला जर्जर हेलीकॉप्टर खुद शशांक और विंग कमांडर आरएन सेनगुप्ता उड़ा रहे थे। शशांक प्रदेश सरकार के उड्डयन सलाहकार भी हैं और पाइलट भी। प्रतिबंधित हेलीकॉप्टर को रात में उड़ाने का मसला नागरिक उड्डयन महानिदेशालय [डीजीसीए] तक तूल न पकड़े इसके लिए उड़ान दस्तावेजों में समय को लेकर फर्जी तथ्य भी दर्ज किए गए।

फैजाबाद में एयरपोर्ट अथॉरिटी का कोई एयर ट्रैफिक कंट्रोल नहीं है, लिहाजा हेलीकॉप्टर की लैंडिंग का समय अपनी मर्जी से शाम करीब सवा छह बजे और हवाई जहाज के टेक-ऑफ का समय करीब साढ़े छह बजे दर्ज कर दिया गया। लेकिन लखनऊ के एयर ट्रैफिक कंट्रोल में मायावती को लेकर आए विमान [सुपर किंग एयर] के लखनऊ पहुंचने का समय आधिकारिक तौर पर रात का सवा आठ [8.15] दर्ज है। अगर हवाई जहाज ने साढ़े छह बजे शाम फैजाबाद से लखनऊ के लिए उड़ान भरी तो उसे लखनऊ पहुंचने में सवा दो घंटे क्यों लगे? मुख्यमंत्री की सुरक्षा को लेकर उड्डयन महकमे की लापरवाही का आलम यह है कि उन्हें 'रेस्क्यु’ कर लाने के लिए भेजे गए विमान को भी अयोग्य घोषित पाइलट ही उड़ा रहे थे। इनमें से एक वयोवृद्ध कैप्टन पीसीएफ डिसूजा मेडिकली अनफिट हैं तो दूसरे कैप्टन वीवी सिंह भी करीब 62 साल के हैं जो उड़ान अर्हता पास नहीं हैं।

अमेरिका से बड़े नाज नखरे से जो विमान [वीटीयूपीएन] और हेलीकॉप्टर [वीटीयूपीओ] लखनऊ लाया गया था, उससे जुड़े तथ्य भी कम रोचक-रोमांचक नहीं हैं। विमान पूर्ण रूप से जेट विमान है। इसे उड़ाने की योग्यता उत्तर प्रदेश में किसी के पास नहीं है। लेकिन उक्त विमान और हेलीकॉप्टर दोनों से ही वीवीआईपी सवारियां लेकर उड़ान भरने का भारी रिस्क लगातार उठाया जा रहा है। अभी एक सितम्बर को उसी अमेरिकी हेलीकॉप्टर पर मुख्यमंत्री को बिठा कर उड़ान भरने की कोशिश की गई, लेकिन वह हवा में धचके खाने लगा। किसी तरह हेलीकॉप्टर उतारा गया।

जेट विमान को उड़ाने की ट्रेनिंग के लिए योग्य पाइलटों को न भेज कर कैप्टन वीवी सिंह [62] और वायुसेना से डेपुटेशन पर आए विंग कमांडर राजेश कुमार नागर को अमेरिका भेजा गया। लेकिन कैप्टन वीवी सिंह उड़ान प्रशिक्षण पास नहीं कर पाए। ...और नागर वही हैं जो अभी हाल ही इलाहाबाद में राज्य सरकार का विमान दुर्घटनाग्रस्त कर चुके हैं। हैरत यह है कि अपने प्रदेश के कैबिनेट सेक्रेटरी शशांक शेखर सिंह अमेरिका से आया विमान और हेलीकॉप्टर दोनों ही उड़ा रहे हैं। शशांक जेट विमान की ट्रेनिंग लेने अमेरिका गए भी नहीं और डीजीसीए से 'इंडोर्समेंट’ भी पा लिया!

जिस दिन दिल्ली में विश्वास मत पर संसद में वोट पड़ने वाला था, उस दिन मुख्यमंत्री मायावती की सुरक्षा के साथ विश्वासघात की वजह तैयार हो रही थी। उन्हें उसी जेट विमान से शशांक दिल्ली लेकर गए। शशांक उस विमान को 'सिंगल क्वालिफायड पाइलट’ के बतौर अकेले ही उड़ा रहे थे। डीजीसीए का उड़ान नियम यह कहता है कि पाइलट को सम्बद्ध विमान उड़ाने का कम से कम 50 घंटे का अनुभव बतौर पाइलट इन कमांड [पीआईसी] होना चाहिए। इसके अलावा 50 घंटे की नाइट फ्लाइंग का अनुभव भी अनिवार्य है।

अभी 13/14 अगस्त को कैबिनेट सेक्रेटरी इसी जेट विमान को अकेले उड़ा कर दिल्ली गए। शशांक अपना रूटीन पाइलट मेडिकल जांच कराने गए थे। शाम को 7.17 पर विमान लेकर पालम से उड़े। लेकिन उड़ते ही एटीसी से वापस इमरजेंसी लैंडिंग की इजाजत मांगने लगे। 7.34 में पालम पर ही वापस लैंड किया। पाया गया कि गलत हैंडलिंग के कारण विमान में 'ट्रिम फेल्योर’ हो गया जिस वजह से विमान का नियंत्रण खो चुका था। एयरपोर्ट अथॉरिटी ने इस खराबी के बारे में डीजीसीए को फौरन ही इत्तिला कर दी। लेकिन विमान में खराबी क्यों आई? प्रदेश की मुख्यमंत्री को इन तथ्यों की जानकारी नहीं दी जाती। लखनऊ में बसपाई रैली के दिन उसी अमेरिकी हेलीकॉप्टर से शशांक शेखर उन्हें रैली स्थल तक ले गए थे, जिस दिन मायावती ने मंच से कहा था, 'मेरी जान को खतरा है...’

प्रभात रंजन दीन

बिहार में क्या मुद्दा नहीं है

बिहार सम्पूर्ण भ्रांति में घिसटसामाजिक अन्याय का प्रदेश रहा हैता हुआ भीषण , रखा गया है और उसे ऐसा ही बनाए रखा जाएगा। आजादी के बाद से अब तक जितने भी 31 मुख्यमंत्री हुए, श्रीकृष्ण सिंह से लेकर कृष्ण वल्लभ सहाय, बीपी मंडल और कर्पूरी ठाकुर, जगन्नाथ मिश्र से लेकर लालू यादव और नीतीश कुमार तक सब एक ही धूर्त नस्ल के रहे हैं। इनकी मक्कारी के कारण पैदा होती रही सिलसिलेवार वजहों से बिहार आज इस दुर्दशा तक पहुंचा है और विध्वंस की चरम स्थिति तक जल्दी ही पहुंचने वाला है। बिहार की इस नकारात्मक विकास-यात्रा के संवाहक लीडरों में इतनी भी पुंसकता नहीं कि वे इस पर सार्थक बहस में उतरने का साहस करें। वे बहस में उतरने का केवल स्वांग भरते हैं। दरअसल वे बहस में नहीं, कलह में उतरते हैं। एक दूसरे को गरियाते हैं। बेटी-रोटी करते हैं या कमजोर पड़ने पर हास्य अभिनेता के भौंडे रोल में उतरने से जरा भी नहीं हिचकते। बिहार में बाढ़ मुद्दा जरूर है। लेकिन आप बताएं कि बिहार में क्या मुद्दा नहीं है। यह अलग बात है कि मुद्दा बनता नहीं है...

बिहार में बाढ़ को लेकर तमाम अखबारों में खबरें आ रही हैं। विजुअल मीडिया भी बिहार की बाढ़ पर पिला पड़ा है। बाढ़ की त्रासदी को लेकर चाहे प्रिंट मीडिया हो या विजुअल मीडिया, दोनों ही अपनी संवेदनशीलता दिखा रहे हैं, या दोनों ही, बाढ़-त्रासदी को बाजार में बेच रहे हैं। बिहार में बाढ़ अभी प्रलय का रूप नहीं ले रही है। लेकिन वह समय भी जल्दी ही आने वाला है जब बिहार केवल भारत के नक्शे की निशानी के बतौर रह जाएगा और वहां कोशी, बागमती और बूढ़ी गंडक जैसी नदियां हहराती हुई गंगा की धार में मिलती बहती दिखेंगी और बिहार तल में होगा। सम्पूर्ण मीडिया बाढ़ के प्रकोप और उससे आक्रांत लोगों की त्रासदी दिखा रहा है, प्रशासनिक नाकामियां और नेपाल की बदमाशियां दिखा रहा है, लेकिन असली जख्म कहां है, मीडिया को दिख नहीं रहा, इसलिए दिखा नहीं रहा। आम फहम बात चलती है कि राजनीतिक रूप से बिहार बहुत ही जागरूक प्रदेश है। लेकिन आप मानें कि बिहार के लोग राजनीतिक-सामाजिक जागरूकता की दृष्टि से बिल्कुल मूढ़ हैं। उन्हें जागरूक बता-बता कर कुछ नेताओं ने बिहार के लोगों को बेवकूफ बनाया है, उन्हें बेचा है। इतना बेचा कि आज बिहारियों की कोई कीमत और कोई वकत नहीं रह गई। जिस प्रदेश के लोग आजादी के बाद से आज तक अपने सरोकारों के प्रति जागरूक नहीं हो पाए, जो अधिकार-अधिकार का प्रलाप करते रहे और अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं हो पाए, जिन्हें सड़क-बांध और नदियों-नालों की सुरक्षा के प्रति कोई जागरूक-चिंता नहीं रही, जो जानवर की हद तक जाकर जीने के लिए तैयार होते रहे, उस नागरिक-जमात को जागरूक बताना उसे बेवकूफ बनाना ही तो है। बुद्ध-महावीर की धरती, चाणक्य और चंद्रगुप्त की धरती, अंगराज कर्ण और महावीर जरासंध की धरती, महान अशोक की धरती, वीर कुंअर सिंह की धरती, खुदीराम बोस की धरती, राजेंद्र प्रसाद और जयप्रकाश नारायण की धरती, दिनकर और गोपाल सिंह नेपाली की धरती... और जाने क्या-क्या बता बता कर इस प्रदेश में मूढ़ता का सुनियोजित सृजन किया गया। पूर्वज हाथी पालते थे, हम हाथी बांधने की जंजीरें भांजने की नितांत मूर्ख हरकतों में लगे हैं। विडम्बना यह है कि बिहार के लोगों को जागरूक बता कर सामाजिक-मूढ़ता का नियोजित विस्तार करने वाले वे सारे 'लीडर’ उत्तर-स्वतंत्रता-काल से लेकर बिहार की सम्पूर्ण क्रांति और सामाजिक न्याय तक के स्वयंभू ठेकेदार हैं। उनके घर बाढ़ में नहीं बहते। उनके बच्चे राहत सामग्री के लिए टकटकी बांधे नहीं रहते। उनके घर की महिलाओं को बाढ़ के पानी में जंघा तक कपड़े उठाए चलने की व्यथा नहीं झेलनी पड़ती। वे हेलीकॉप्टर से फेंकी गई कृपादृष्टि और राहत सामग्री के कातर पात्र नहीं। वे तो उड़नखटोले पर विचरण करते हुए भेंड़-बकरियों के सदृश बिहार के लोगों पर सामाजिक न्याय की समग्र दृष्टि डालते हैं। बात सुनने में कड़वी जरूर है, लेकिन हेलीकॉप्टर में दूरबीन लिए बैठे नेता को हेलीकॉप्टर की चक्रवाती हवा में महिलाओं के उड़ते बिखरते कपड़ों को देखते और कुत्सित मौज लेते मीडिया के न जाने कितने साथियों ने देखा होगा, लेकिन यह उनके लिए मुद्दा नहीं है। बात सुनने और कहने दोनों में कड़वी है, लेकिन इससे कब तक बचेंगे! सच को दबाए रखने और छद्म को उघारे रखने के कारण ही तो बिहार की यह दशा हुई है।

बिहार सम्पूर्ण भ्रांति में घिसटता हुआ भीषण सामाजिक अन्याय का प्रदेश रहा है, रखा गया है और उसे ऐसा ही बनाए रखा जाएगा। आजादी के बाद से अब तक जितने भी 31 मुख्यमंत्री हुए, श्रीकृष्ण सिंह से लेकर कृष्ण वल्लभ सहाय, बीपी मंडल और कर्पूरी ठाकुर, जगन्नाथ मिश्र से लेकर लालू यादव और नीतीश कुमार तक सब एक ही धूर्त नस्ल के रहे हैं। इनकी मक्कारी के कारण पैदा होती रही सिलसिलेवार वजहों से बिहार आज इस दुर्दशा तक पहुंचा है और विध्वंस की चरम स्थिति तक जल्दी ही पहुंचने वाला है। पूछिए कर्पूरी ठाकुर के समकालीन किसी भी राजनीतिक या समाजसेवी से। अगर वह आपको ईमानदारी से बताए कि कैसे वे चूड़ा-दही जीम कर सुबह-सुबह पिछले दरवाजे से निकल जाते थे। अपने कुर्ते की जेब में दतवन [दातुन] रखते थे। उनके घर जनता का जमावड़ा लग जाता तो करीब बारह-एक बजे वे सामने के रास्ते से परेशान-हाल दतवन करते पैदल आते दिखते। जनता स्तब्ध उन्हें देखती रहती और कर्पूरी जी उन्हें समझाते, 'आप ही लोगों के काम में सुबह से लगा रहता हूं, मुंह तक धोने का टाइम नहीं मिलता।’ चमत्कृत लोग अपनी बात बताना भी भूल जाते और फिर भी प्रभावित होकर जाते कि लीडर जनता के काम में इतना व्यस्त है कि दोपहर तक मुंह भी नहीं धो पाता। इस तरह के नियोजित छद्म से ही बिहार के नेताओं की दुकानें चलती रही हैं। जब जननायकों की छवि वाले लीडरों का यह असली चेहरा था तो लालू-नीतीश जैसे नेताओं के आडम्बर के स्तर के बारे में एक बिहारी क्या समस्त देशवासी आसानी से समझ सकता है। लालू-राबड़ी शासनकाल में सड़कों की दुर्दशा के बारे में उनसे पूछा जाता था, तो लालू सामाजिक न्याय की नायाब परिभाषाएं रचते थे। पक्की सड़क को सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक बताते थे और लोगों को सावधान करते थे कि पक्की सड़कें बनीं तो पुलिस गांव तक पहुंच जाएगी। बिहार के विकास-पुरूष लालू पक्की सड़क और ठोस ढांचे का विरोध करते हुए, चारा खाते हुए अपना ढांचा ठोस करने में कामयाब रहे। ललित नारायण मिश्र की हत्या पर चुप्पी साधे रहने के एवज में मुख्यमंत्री का पद पाए शिक्षक डॉ. जगन्नाथ मिश्र की वैभव यात्रा, फुलवारीशरीफ के पशुपालन विभाग के सीलन भरे कमरे में जिंदगी जीने वाले निम्न दर्जे के छात्र रहे लालू यादव और राजेंद्र नगर से कंकड़बाग तक किराए का कमरा ढूंढ़ने वाले नीतीश कुमार के भौतिक उठान और चारित्रिक गिरान का ग्राफ आपको बिहार की सड़कों और बांधों के जर्जर होने की कहानी तो बता ही रहा है।

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण कहता है कि प्रखरता और मूढ़ता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। 'इंटेलिजेंस’ और 'इडियॉसी’ दोनों साथ-साथ ही चलती है। बिहार में 'इंटेलिजेंस’ का दौर कभी था। अभी 'इडियॉसी’ का दौर चल रहा है। या कहें 'इंटेलिजेंस’ आजादी के बाद बिहार पर राज करने वाले राजनीतिकों के ठेके में रही और 'इडियॉसी’ बिहार के आम आदमी के मत्थे मढ़ी जाती रही। बिहार में बाढ़ मुद्दा जरूर है। लेकिन आप बताएं कि बिहार में क्या मुद्दा नहीं है। यह अलग बात है कि मुद्दा बनता नहीं है। क्या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बाढ़ से राहत दिलाने में असमर्थता जताना राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है? अपने शासन के लम्बे 15 अराजक साल भूल कर नीतीश कुमार पर लालू यादव का कटाक्ष करना क्या मुद्दा नहीं? नेपाल की तरफ से कोशी का पानी लगातार छोड़े जाने के कृत्य के खिलाफ केंद्र सरकार का कूटनीतिक हस्तक्षेप न करना क्या मुद्दा नहीं है? 31 मुख्यमंत्रियों से बिहार के विकास और उनके व्यक्तिगत विकास का फर्क पूछने और पाई-पाई हिसाब लिए जाने का मुद्दा न तो कभी मीडिया को दिखा है और न धंधा करने वाले सामाजिक संगठनों को। बिहार में तमाम किस्म की अधोवृत्तियां कर रही राजनीतिक पार्टियों से तो कुछ सकारात्मक लोकतांत्रिक अपेक्षा रखना वैसा ही है जैसे बिहारियों को बहुत जागरूक बता कर लल्लू का उल्लू साधना। बिहार की इस नकारात्मक विकास-यात्रा के संवाहक लीडरों में इतनी भी पुंसकता नहीं कि वे इस पर सार्थक बहस में उतरने का साहस करें। वे बहस में उतरने का केवल स्वांग भरते हैं। दरअसल वे बहस में नहीं, कलह में उतरते हैं। एक दूसरे को गरियाते हैं। बेटी-रोटी करते हैं या कमजोर पड़ने पर हास्य अभिनेता के भौंडे रोल में उतरने से जरा भी नहीं हिचकते। बाढ़ तो बिहार के लिए मौसम की तरह है। आजादी के बाद से आज तक बांधों की कोई देखरेख नहीं हुई। अब तक 31 मुख्यमंत्री आए और गए। जो बिहार को कायदे से जानते समझते हैं, बिहार के भूगोल का ज्ञान और बिहारी नेताओं का मनोविज्ञान समझते हैं, वे यह जानते हैं कि प्रदेश के सारे बांध अतिक्रमण में है। बांधों पर लोगों के घर बने हैं। बंधे काट-काट कर खेतों में मिला दिए गए हैं। बांध पशुओं के बांधने और उनका चारा-भूंसा रखने की जगह बन चुके हैं। पशुओं का चारा-भूंसा रखने की वजह से चूहे उन जगहों को पोपला कर चुके हैं। हर साल जब नदियां उफनाती हैं तो उन पोपले स्थानों से मैदान में उतर कर सामाजिक न्याय का खौफनाक दृश्य दिखाती हैं। उसी सामाजिक न्याय का, जिसकी दलीलें देकर लालू जैसे नेता बांधों पर ग्रामीणों के अतिक्रमण को उचित ठहराते रहे हैं और बाढ़ आने पर मीडिया के समक्ष बड़े गौरव बोध से कहते रहे हैं, 'ई बाढ़ आप लोगों के लिए न मौसमी खबर है। ई आता है तो महीना दू महीना ई गांव वाला सब को सब्जी का इंतजाम नहीं न करना पड़ता है। मछली का पूरा इंतजाम रहता है, सब लोग खूब मौज में पिकनिक मनाता है। आप लोग बाढ़-बाढ़ करते रहिए।’ लालू के शासनकाल में बिहार में बाढ़ मछलियां और ग्रामीणों के लिए 'पिकनिक’ लेकर आती है, लेकिन नीतीश के शासन में विपदा। यही बिहार के राजनीतिकों का असली स्तर है। इनसे आप अपेक्षा कर सकते हैं कि ये किसी मुद्दे पर गम्भीर हों, सार्थक बहस में उतर सकें और उसके समाधान का शिद्दत से रास्ता तलाश सकें!

बिहार की नदियों का जायजा लें। शहर के नाम पर स्लम का विस्तार पूरे प्रदेश को ग्रस चुका है। नदियां सिमटती चली गईं। करीब करीब सभी नदियों ने बिहार में अपना पाट छोड़ दिया है। अब पता ही नहीं चलता कि नेताओं के चरित्र की तरह नदियों के पाट कहां खो गए। नदियों के तल मलबों और शहरी व कस्बाई कचरों से भर रहे हैं। तालाब और झीलें रहने के लिए भर कर समतल बना डाली गइं, तो आप क्या सोचते हैं कि नदियों का पानी अपने मूल स्रोत से बढ़ेगा तो कहां जाएगा? पानी को तो बहना ही है, तो वह पूरे बिहार के ऊपर से बहेगा। आप याद करिए, गंगा के किनारे बसी राजधानी पटना का पुराना दृश्य। हहराती लहराती गंगा पटना में कितना मनोरम दृश्य दिखाती थी। हरियाली से घिरे शहर के किनारे गंगा में बड़े बड़े जहाज ऐसे चलते थे जैसे मिसीसीपी नदी, टेम्स या नील नदी में चलते हों। गंगा का पानी ऐसा साफ कि अंजुरी भर कर पी लें। आज बिहारियों के मल-मूत्र से भरी गंगा क्या आपको नहीं दिखती? मिसीसीपी, टेम्स वगैरह तो आज भी अपने मौलिक स्वच्छ स्वरूप में है लेकिन पटना की गंगा कहां सिमट गई, कभी सोचा है इसे? अगर सोचा गया तो क्या इसे कभी मुद्दा बनाया गया? अगर गंगा में बाढ़ आई और सोन नदी को गुस्सा आया तो पटना का क्या होगा। सत्तर के दशक में आई बाढ़ के बाद तो पटना के लोगों ने हर बारिश में ही उतना पानी, उतनी बीमारी और उतनी राजनीतिक बेचारगी झेल ली।

बिहार की बांधें इसलिए जर्जर हैं क्योंकि वहां के लोग जर्जर हैं। बिहार की नदियां मलबे और गंदगियों से इसलिए भरती चली जा रही हैं क्योंकि बिहार के लोग खुद कचरा हैं। बिहार के नेता इसलिए स्खलित हैं क्योंकि हम आप स्खलित हैं। हम हीन हैं। हम सामाजिक न्याय जैसी मक्कार शब्दावलियों की साजिश के शिकार हैं। बिहार के लोगों को कितना न्याय मिल गया, वह सब सामने है। पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र व अन्य राज्य के लोगों को पंजाबी, बंगाली, मराठी वगैरह कहने में गर्व होता है, पर बिहार के लोगों को खुद को बिहारी कहने में शर्म आती है। बिहार के क्षुद्र लीडर बिहार के लोगों में बिहारी होने के ऐतिहासिक गौरवबोध की स्कूलिंग तक नहीं कर पाए, आत्मसम्मान नहीं जाग्रत करा पाए, स्वाभिमान और स्वावलम्बन नहीं दे पाए, रोटी के लिए मारा-मारा फिरने के लिए छोड़ दिया, उस राज्य के लोगों को असम से लेकर महाराष्ट्र तक अपमानित तो होना ही पड़ेगा। यह लालू-कर्पूरी मंडल का सामाजिक न्याय ही तो है। टुकड़ों में विभक्त, टुकड़े के लिए लालायित!

हममें सच स्वीकार करने का माद्दा नहीं। विज्ञान का नियम जीवन पर लागू होता है, कम से कम उसे तो मानें। हम जैसा चरित्र और व्यवहार रखते हैं, करते हैं, प्रकृति वैसा ही व्यवहार और चरित्र हमें प्रत्यावर्तित करती है। आप याद करें वही सहरसा मधेपुरा जहां के लोग आज भीषण बाढ़ से आक्रांत हैं, वहां कभी अस्सी के दशक में बदला घाट रेल हादसा हुआ था। पूरी की पूरी ट्रेन पुल से कोशी नदी में जा गिरी। हजारों लोग मरे थे। महिलाएं बच्चे सब उफनाई कोशी की धार में बह गए थे। कोशी की धार ऐसी कि उसमें गिरे डिब्बे जब बाहर निकाले गए तो वे स्क्रू की तरह घूमे हुए पाए गए थे। हादसे में जो लोग तैर कर जान बचा सकते थे, वे भी नहीं बच पाए। तैर कर किनारे पहुंचने पर मधेपुरा के लोग उन्हें खुरपियों और कुदाल से काट कर मार डालते और उनकी घड़ियां, पैसे और जेवर वगैरह लूट लेते। हैवानियत का नंगा बर्बर दृश्य अब भी लोगों की रूह कंपा देता है। जब पुलिस ने मधेपुरा सहरसा के गांवों में छापामारी की तो घरों में घड़े भर-भर के घड़ियां बरामद की गई थीं। सोने जेवरात और अन्य सामान की तो पूछिए मत। यानी जितनी घड़ियां उतनी हत्याएं की थीं लोगों ने। गांवों में चादरों पर घड़ियां फैला कर सुखाई जाती हुई बरामद की गई थीं। आज वह पूरा इलाका बाढ़ से लबालब है। वही कोशी है और वही उसकी धार है। बात अलग धरा की है लेकिन आधार की है। निराधार नहीं। बिहार में फैली सड़ांध हमारे ही व्यक्तित्वों और कृतित्वों का प्रत्यावर्तन है। बिहार को गर्त में धकेलने वाले नेता भी बिहार के लोगों का ही 'रिफ्लेक्शन’ हैं। सामाजिक न्याय विद्रूप हुआ तो प्राकृतिक न्याय असंतुलित हो गया। प्रतीक्षा के बाद भी बारिश नहीं, अनिच्छा के बावजूद बाढ़। स्खलित सियासत का प्रतिबिम्ब प्राकृतिक-चर्या पर आप साफ-साफ देखिए।

लालू यादव अब इस बात पर कलह कर रहे हैं कि बाढ़ प्रभावित लोग भाग कर राजधानी पटना पहुंचें। लालू इस प्राकृतिक आपदा के समय भी अराजकता भरी सियासत का विस्तार करने का कुचक्र रच रहे हैं। बाढ़ से आक्रांत लोग राजधानी के लोगों को घरों में सुख से रहता हुआ नहीं देख पाएंगे। बिहार के नेता बिहार के लोगों को गृह युद्ध की तरफ या सामूहिक आत्महत्या की तरफ धकेल रहे हैं। परस्पर हत्या या आत्महत्या का एक खौफनाक दौर शुरू होने का अंदेशा गहराता जा रहा है। नेताओं की साजिश इसी बात की है। गिद्धों का भोजन इसी सामूहिक आत्महत्या से चलने वाला है। कफन की दुकानें इसी सामूहिक खुदकुशियों से चल निकलने वाली हैं। इस खौफनाक दौर को हम समय रहते रोक लें, या पक्के बिहारी बने रहें और भुनभुनाते रहें...

हक अच्छा पर उसके लिए कोई और मरे तो और अच्छा
तुम भी कोई मंसूर हो जो सूली पे चढ़ो... खामोश रहो
आंखें मूंद किनारे बैठो, मन के रखो बंद किवाड़
इंशा जी लो धागा ले लो, लब सी लो, खामोश रहो...

Sunday, August 31, 2008

बिहार में नहीं मिली है रोजगार की गारंटी

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली July 23, 2008



पंजाब में इस साल धान की रोपाई में बिहार के मजदूरों की भारी कमी देखी गई। इसका श्रेय लेते हुए बिहार सरकार ने कहा है कि मजदूरों को अपने राज्य में ही रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए जा रहे हैं, जिससे वे अब काम के लिए बाहर जाने को मजबूर नहीं हैं।

सरकार ने इस बात का भी दावा किया कि राज्य सरकार की योजनाओं सहित राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत लाखों लोगों को रोजगार मुहैया कराया जा रहा है। लेकिन ये सारे दावे कागजी ही नजर आते हैं। असली तस्वीर कुछ और हैं।

बेरोजगारों को सौ दिन का रोजगार देने वाली योजना राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) नाकाम साबित हो रही है। इस योजना के अंतर्गत सवा दो वर्षों में एक प्रतिशत से भी कम जॉब कार्डधारियों को सौ दिन का रोजगार उपलब्ध हो पाया है। इस योजना के तहत इस बात का भी प्रावधान है कि अगर जॉब कार्डधारियों को सौ दिन का रोजगार नहीं मिल पाता है, तो उसे बेरोजगारी भत्ता दिया जाएगा, लेकिन काम नहीं पाने वाले बेरोजगारों और जॉब कार्डधारियों को यह भत्ता भी नसीब नहीं हुआ है।

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह इसके लिए राज्य सरकार को दोषी मानते हैं। उनका कहना है कि नरेगा के कार्यान्वयन में बिहार फिसड्डी साबित हो रहा है। इस पर बिहार के ग्रामीण विकास मंत्री भगवान सिंह कुशवाहा का कहना है कि नरेगा के अंतर्गत लोगों ने काम की मांग की ही नही, तो उन्हें कहां से काम दिया जाएगा। जिन लोगों ने काम की मांग की है, उन्हें रोजगार मिला है। मंत्री द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक योजना के सवा दो वर्ष बीत जाने के बाद जॉब कार्डधारियों की संख्या में सात गुणा बढ़ोतरी हुई है।

वर्ष 2006-07 में जॉब कार्डधारियों की संख्या 12.56 लाख थी। वर्ष 2007-08 में कार्डधारियों की संख्या बढ़कर 45.64 लाख हो गई। वर्ष 2008-09 के पहले तीन महीनों में जॉब कार्डधारियों की संख्या 87.51 लाख हो गई। लेकिन इन सवा दो वर्षों में केवल 70,025 परिवारों ने ही नरेगा के तहत सौ दिनों तक काम किया। इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में मात्र 2554 परिवारों, वर्ष 2007-08 के दौरान 37,119 परिवारों और वर्ष 2006-07 में 30352 परिवारों को ही सौ दिनों का रोजगार उपलब्ध कराया गया।

जॉब कार्डधारियों और सौ दिनों का रोजगार मिलने वाले परिवारों की संख्या में भारी अंतर होने के मुद्दे पर राज्य के ग्रामीण विकास मंत्री ने कहा कि जॉब कार्डधारियों ने रोजगार की मांग की ही नही है। उन्होंने कहा कि वर्ष 2007-08 में 16.21 लाख जॉब कार्डधारियों ने काम करने की मांग की और 16.08 लाख लोगों को काम मिला।

एक तरफ तो मंत्री का कहना है कि 16 लाख जॉब कार्डधारी काम करने को इच्छुक हैं और दूसरी तरफ 37 हजार लोगों को रोजगार मिल पा रहा है। विभागीय मंत्री कहते हैं कि बहुत सारे गांव वाले जॉब कार्ड बन जाने का मतलब नौकरी मिलना समझने लगते हैं। उनसे अगर मिट्टी कटाई का कोई काम करने को कहा जाता है, तो वे इस तरह का काम करना नहीं चाहते। ऐसे हालात में रोजगार देने में दिक्कत आती है।

नेपाल के बांध रोकेंगे बिहार की बाढ़

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली August 03, 2008



बाढ़ की विभीषिका से बिहार परेशान है। जाहिर सी बात है कि बाढ़ की बेकाबू स्थिति से मुख्यमंत्री सचिवालय भी हलकान है।

राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब नेपाल में ऊंचे बांध बनाकर इस समस्या का स्थायी हल तलाशने की कवायद में जुटे हैं। मुख्यमंत्री सचिवालय के एक अधिकारी ने बताया कि यदि नेपाल में बांध बनाए जाते हैं तो इससे बिजली भी मिलेगी और नेपाल के तराई क्षेत्रों में सिंचाई की समस्या भी हल हो जाएगी।

पूर्वी नेपाल की सप्तकोशी बहुद्देश्यीय परियोजना से बिहार के बाढ़ की समस्याओं को सुलझाया जा सकता है, लेकिन यह क्रांति राष्ट्रीय मोर्चा (माओवादी से संबद्ध) के विरोध के कारण खटाई में पड़ गया है। मालूम हो कि नेपाल के साथ कई पनबिजली परियोजनाओं में बहुत सारी भारतीय कंपनियों ने रुचि दिखाई है।

नेपाल में टाटा ग्रुप सहित 10 भारतीय कंपनियां तीसरे बिजली परियोजना को हासिल करने की होड़ में शामिल है। जीएमआर ग्रुप ने तो 300 अपर कर्णाली पनबिजली परियोजना हासिल भी कर ली है। इसके साथ सतलज जल विद्युत निगम ने 402 अरुण-3 प्रोजेक्ट पर कब्जा जमाया है। इन परियोजनाओं से यह आशा की जा सकती है नेपाल में ऊंचे बांध का निर्माण हो सकता है। पिछले सप्ताह नीतीश कुमार ने बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों के दौरे के पश्चात मुख्यमंत्री ने नेपाल की सीमा रेखा के नजदीक बीरपुर (सुपौल जिला) के स्थानीय अधिकारियों के साथ मिलकर एक उच्च स्तरीय बैठक आयोजित की।

इस बैठक में कोशी प्रमंडल के आयुक्त यू के नंदा सहित मधेपुरा, सुपौल, सहरसा और अररिया जिले के जिला मजिस्ट्रेट भी शामिल हुए। बैठक के बाद उन्होंने कहा कि बाढ़ की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए सभी सुरक्षा उपायों पर काम किया जा रहा है, हालांकि स्र्थाई समाधान तो नेपाल में बांध बनाकर ही निकाला जा सकता है। लेकिन कुल मिलाकर स्थिति यह है कि बिहार में बाढ़ की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं आ रहा है। राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग के एक अधिकारी ने कहा कि बाढ़ से कटिहार, नालंदा, वैशाली, पटना, मुजफ्फरपुर, सुपौल, सहरसा आदि जिलों के 540 गांवों के 4 लाख लोग प्रभावित हो रहे हैं।

उन्होंने कहा कि बाढ़ से 775 घर पूरी तरह से तबाह हो गए और इससे लगभग 40 लाख रुपये का नुकसान हुआ है। केंद्रीय मुख्यमंत्री सचिवालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि बाढ़ के स्थायी समाधान के लिए राज्य सरकार काम कर रही है। इस बाबत नेपाल पर ऊंचे बांध बनाए जाने की दिशा में होने वाली बातचीत भी शामिल है। हालांकि नेपाल के साथ इस प्रकार का कोई समझौता केंद्रीय हस्तक्षेप के बगैर संभव नही है। इस संबंध में केंद्र से भी बातचीत की जाएगी। उन्होंने बताया कि राज्य सरकार इस मसले को काफी गंभीरता से ले रही है। संभव है कि इस संबंध में एक उच्च स्तरीय समिति प्रधानमंत्री से मिलकर नेपाल के साथ मामले की गंभीरता को लेकर बात करे।

बिहार को खुद पर भरोसा

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली August 17, 2008



सड़क निर्माण को लेकर बिहार सरकार का इरादा अब बदल चुका है। अब राज्य सरकार इन कार्यों के लिए राज्य की एजेंसियों पर ही भरोसा करने लगी है।

केंद्र सरकार की ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत बनी अधिकार प्राप्त समिति ने यह सुझाव दिया है कि राज्य के कई जिलों में सड़क निर्माण का कार्य राज्य सरकार के ग्रामीण कार्य विभाग को सौंप दिया जाए। इन सड़कों का निर्माण केंद्र सरकार द्वारा उपलब्ध राशि से कराई जाएगी।

आधिकारिक सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक केंद्र सरकार ने राज्य में 2880.443 किलोमीटर सड़क निर्माण का काम राज्य सरकार को आवंटित कर दिया है। इस पूरी परियोजना के अंतर्गत पूरे राज्य में 705 सड़कें बनाए जाने का प्रस्ताव है। इस निर्माण कार्य में कुल 1245.86 करोड़ रुपये की राशि खर्च होने का अनुमान है।

रूरल इंजीनियरिंग ऑर्गेनाइजेशन (आरईओ) से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस परियोजना के तहत छपरा में 279, बांका में 129, पूर्णिया में 84, कटिहार में 60, भभुआ में 51, औरंगाबाद में 54, जहानाबाद में 48 सड़कों का निर्माण कार्य शामिल किया गया है।

इन सड़कों के निर्माण कार्य के लिए निविदा और कार्य-प्रारूप के आवंटन का काम भी ग्रामीण विकास विभाग द्वारा किया जाएगा। राज्य ग्रामीण विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि राशि की उपलब्धता के बाद ही कार्य प्रारूप का निर्धारण संभव हो पाएगा।

उन्होंने कहा कि इन जिलों में सड़क निर्माण की प्रक्रिया की रूपरेखा और उसके बाद निविदा आमंत्रण की प्रक्रिया राशि की घोषणा के बाद की जाएगी। जिलों के हिसाब से जिस प्रकार सड़कों के निर्माण का मसौदा तैयार किया गया है, उससे तो यही लगता है कि राशि की उपलब्धता के बाद ही आगे बढ़ा जा सकता है।

विकास का भूखा पूरब का 'रूर'

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली August 20, 2008



देश की कुल खनिज संपदा में 40 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी रखने वाला झारखंड जोड़-तोड़ की राजनीति का शिकार होकर विकास की दौड़ में पिछड़ता नजर आ रहा है।

अपने विशाल कोयला और इस्पात भंडारों के कारण पूरब का रूर कहलाने वाले इस राज्य में राजनीतिक अस्थिरता की वजह से लगभग 60 हजार करोड़ की परियोजनाएं अधर में लटकती मालूम पड़ रही है।

अकेले मधु कोड़ा सरकार की बात की जाए, तो उसने 26,000 करोड़ रुपये की राशि के समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं लेकिन जमीन अधिग्रहण और राजनीतिक समस्याओं के चलते इन परियोजनाओं को जमीन पर नहीं लाया जा सका।

शिबू सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा द्वारा मधु कोड़ा सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद इन परियोजनाओं का भविष्य और भी मुश्किल में दिखाई दे रहा है। राज्य में मित्तल स्टील प्लांट की 1 करोड़ 20 लाख टन इस्पात उत्पादन में 40,000 करोड़ रुपये के निवेश की योजना है।

इसके अलावा जिंदल स्टील प्लांट भी राज्य के चंडी इलाके में 11,000 करोड़ रुपये का निवेश करने की योजना पर काम कर रही है। इस बाबत जिंदल स्टील लिमिटेड ने राज्य सरकार से 250 एकड़ भूखंड की मांग की है।

जून 2008 में जिंदल पावर लिमिटेड ने राज्य सरकार से 2,640 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए एक बिजली प्लांट स्थापित करने की परियोजना के तहत 11,500 करोड़ रुपये के निवेश का अनुबंध कर चुकी है। इन बड़ी कंपनियों को अगर छोड़ दें, तो इंडियाबुल्स बिजली क्षेत्र में 6,600 करोड रुपये के निवेश की योजना बना रही है।

झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है और इसलिए राज्य को भारत निर्माण योजना के तहत बड़ी राशि केंद्र के द्वारा मुहैया कराई गई। लेकिन इस योजना के एक साल बीत जाने के बावजूद पूरी राशि का मात्र 7 प्रतिशत ही खर्च हो पाया है। वर्ष 2000 में उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड का एक साथ गठन हुआ था।

अगर उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ की बात करें, तो वहां लोगों को एक स्थायी सरकार मिली है, और इस वजह से राज्य में विकास की प्रक्रिया भी पटरी पर है। दूसरी ओर झारखंड में नक्सली समस्या भी विकास के रास्ते में रोड़ा बनी हुई है। सरकार ने इस समस्या को सुलझाने के लिए भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया। झारखंड में लोगों को बिजली, पानी और सड़कों की समस्या से जूझना पड़ रहा है।

अभी तक बिजली की पूरी क्षमता के 25 प्रतिशत ही इस्तेमाल हो पाया है। मुख्यमंत्री कार्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि 2000 में झारखंड में जो पहला बजट पेश किया गया था, वह लाभ का बजट (सरप्लस बजट) था। लाभ के बजट का यह सिलसिला चौथे बजट तक जारी रहा। लेकिन 5वें बजट से लेकर वर्तमान 7वें बजट तक राज्य को घाटा ही नसीब हुआ है।

बिहार के बुनकर जुड़ेंगे सीधे बाजार से

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली August 23, 2008



बिहार में बुनकरों की स्थिति में सुधार और उन्हें सीधे बाजार से जोड़ने के लिए एक योजना शुरू की गई है। उद्योग विभाग के अंतर्गत काम कर रही हथकरघा और रेशम निदेशालय ने इस योजना का शुभारंभ किया है।

बुनकरों को उनके उत्पादों के लिए सही कीमत दिलवाने के लिए यह पहल की जा रही है। इस योजना के पहले चरण में 1700 बुनकरों को चुना गया है। उद्योग विभाग से प्राप्त जानकारी के मुताबिक इस योजना के लिए 34.40 लाख रुपये स्वीकृत किए गए हैं।

इस योजना के अंतर्गत बुनकरों को दो हजार रुपये की अनुदानित दर पर साइकिल उपलब्ध कराई जा रही है। इससे बुनकर सीधे तौर पर बाजार से जुड़ सकेंगे और बाजार की प्रवृति को समझने में उन्हें आसानी होगी। बाजार से सीधे जुड़ने पर ये बनुकर मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन स्थापित कर पाएंगे और बाजार की प्रवृति के हिसाब से अपने उत्पादों का नया रूप दे सकेंगे।

बिहार हथकरघा और रेशम विभाग के निदेशक प्रेम सिंह मीणा ने कहा कि पहले चरण में 13 बुनकर बहुल जिलों का चयन किया गया है। इन जिलों से लाभार्थियों की संख्या तय कर ली गई है। भागलपुर से 500, बांका से 200, गया से 150, मधुबनी से 150, अरवल से 150, नालंदा से 125, दरभंगा से 100, पटना से 75, औरंगाबाद से 50, जहानाबाद से 50, सारण से 50 और नवादा से 50 बुनकरों को चुना गया है।

सूत्रों ने बताया है कि इस योजना के तहत कुछ ऐसे लोगों को भी साइकिल वितरित की गई है, जो बुनकर के पेशे से सीधे तौर पर जुड़े हुए नहीं हैं। कई जिलों में तो अभी तक इस योजना के प्रति किसी प्रकार की पहल तक नहीं की गई है।

इस बाबत उद्योग विभाग ने उक्त जिलों के संबद्ध अधिकारियों को इस योजना को जल्द-से-जल्द लागू करने के निर्देश दिए हैं। हथकरघा और रेशम निदेशालय ने इन जिलों के जिलाधिकारियों को चुने गए बुनकरों को जल्द से जल्द साइकिल देने का निर्देश दिया है।

बिहार में छिड़ी सर्वशिक्षा अभियान की तान

बुनियादी शिक्षा में अपनी विफलताओं से सीख लेते हुए बिहार ने कायम की मिसाल

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली August 24, 2008



बिहार में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और बालश्रम से मुक्ति की दिशा में चलाए जा रहे अभियान की तारीफ चारों तरफ की जा रही है।

हालांकि बच्चों को शिक्षा उपलब्ध कराने की दिशा में बिहार का अतीत काफी नाकामयाबी भरा रहा है। लेकिन इस नाकामी को जिस तत्परता से दूर करने की कोशिश की जा रही है, निश्चित तौर पर वह काबिले तारीफ है।

एक समय था, जब विद्यालय नहीं जाने वाले बच्चों की सबसे ज्यादा संख्या बिहार में हुआ करती थी, लेकिन सर्वशिक्षा अभियान के तहत राज्य सरकार ने अपनी छवि सुधारने की पूरी कोशिश की है।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने इस संबंध में बिहार सरकार की तारीफ की है। आयोग ने कहा है कि शिक्षा के अधिकार और बालश्रम को खत्म करने में जिस प्रकार की प्रतिबद्धता बिहार ने दिखाई है, उससे अन्य राज्यों को सबक लेनी चाहिए।

आयोग की अध्यक्ष शांता सिन्हा ने कहा कि राज्य में सर्वशिक्षा अभियान निश्चित तौर पर काफी सफल नजर आ रहा है। उन्होंने पटना की कमलानगर और जमुई में चलाए जा रहे आवासीय ब्रिज कोर्स शिविरों को दौरा किया और उसके बाद कहा कि बिहार ने इस दिशा में सराहनीय कदम उठाए हैं।

इन शिविरों में लगभग 70 हजार बच्चे पठन-पाठन कर रहे हैं। यह ब्रिज कोर्स सर्वशिक्षा अभियान के तहत चलाया जाता है। इसके अंतर्गत बच्चों को बुनियादी जानकारियां उपलब्ध कराई जाती है। ब्रिज कोर्स पूरा करने के बाद इन बच्चों का दाखिला स्कूलों में कराया जाता है।

उसके बाद ये बच्चे पढ़ाई की मुख्यधारा में शामिल हो जाते हैं। इस ब्रिज कोर्स में उन बच्चों को शामिल किया जाता है, जो बालश्रम के दंश से पीड़ित रहते हैं। उन्हें शिक्षा प्रदान करने और समाज की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए ब्रिज कोर्स की व्यवस्था की जाती है।

उन्होंने कहा कि बच्चों को शिक्षा के अधिकार से रू-ब-रू कराने और बालश्रम से मुक्ति देने की इससे बेहतर युक्ति नहीं हो सकती है।

बिहार: आखिर सेज से बेरुखी क्यों?

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली August 26, 2008



एक तरफ वाणिज्य मंत्रालय इस बात के कयास लगा रहा है कि अगले साल तक भारत के विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) में निवेश 2 खरब रुपये को पार कर जाएगा, वहीं दूसरी तरफ बिहार में अभी तक किसी भी एसईजेड के लिए कोई प्रस्ताव नहीं आया है।

आज हर प्रकार के एसईजेड बन रहे हैं चाहे वह इंजीनियरिंग हो या आईटी, टेक्सटाइल या मकर्ेंडाइजिंग। स्थिति ऐसी बन रही है कि भारत का सारा निर्यात एसईजेड के माध्यम से ही होगा। लेकिन बिहार की हिस्सेदारी एसईजेड में बिल्कुल नहीं है। इससे साफ जाहिर होता है कि भविष्य में भारत के विदेश व्यापार में बिहार का योगदान बिल्कुल नहीं होगा।

बिहार के उद्योग विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि सरकार इस दिशा में बहुत ज्यादा गंभीर नहीं है, फिर भी एसईजेड के प्रस्ताव सामने आए हैं। लिहाजा इस संबंध में धीमी ही सही लेकिन कुछ अरसे बाद प्रगति देखने को जरूर मिलेगी।

हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि पड़ोसी राज्यों उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल में एसईजेड की स्थापना को लेकर जो भूमि विवाद उत्पन्न हुए हैं, उससे भी बिहार सरकार घबराई हुई है और इस तरह के किसी भी विवाद में नहीं पड़ना चाहती है।

यह पूछे जाने पर कि एसईजेड की प्रासंगिकता बिहार के लिए कितनी है, उन्होंने कहा कि निश्चित तौर पर भविष्य में सारी निर्यात गतिविधियां एसईजेड के जरिये ही होगी। एसईजेड के जरिये होने वाले निर्यातों में जिस प्रकार कर संरचना बनाई गई है, वह निर्यातकों के लिए काफी फायदेमंद भी है।

उन्होंने कहा कि बिहार एसईजेड को लेकर किसी प्रकार के भूमि अधिग्रहण विवाद में नहीं पड़ना चाहता है। यहीं वजह है कि बिहार अभी तक एसईजेड मुक्त राज्य बना हुआ है। केन्द्र सरकार के एक अधिकारी ने कहा कि बिहार सरकार की तरफ से एसईजेड के प्रस्ताव को लेकर किसी भी प्रकार की पहल नहीं की गई है।

निवेश और रोजगार सृजन की अपार संभावनाओं के बावजूद बिहार सरकार की एसईजेड स्थापना के संबंध में उदासीनता निश्चित तौर पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है। दरअसल सेज के तहत निर्यात को बढावा देने के लिए एक सीमित परिसर में वे सारी कर संबंधी सुविधाएं प्रदान की जाती है, जिससे आयात करना काफी आसान हो जाता है। अब आलम यह है कि अगर किसी सामग्री का निर्यात एसईजेड के बाहर से किया जाता है, तो वह इतना महंगा हो जाएगा कि बाजार में उसकी मांग काफी कम हो जाएगी।

अभी तक 513 एसईजेड को औपचारिक स्वीकृति मिल गई है। 11 अगस्त 2008 तक अधिसूचित एसईजेड की संख्या 250 है। इनमें से सिद्धांतत: 138 एसईजेड को मंजूरी मिल गई है। प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक एसईजेड के जरिये 81093.495 करोड़ रुपये का निवेश हो चुका है। एसईजेड की स्थापना से रोजगार का भी काफी सृजन हुआ है। इसके तहत 30 जून 2008 तक कुल 3,49,203 लोगों को रोजगार मिल चुका है।

स्पष्ट है कि इसमें अभी अपार संभावनाएं मौजूद है, जिससे रोजगार में भी काफी बढ़ोतरी होने के आसार हैं। 2006-07 में एसईजेड के माध्यम से 34,615 करोड रुपये का निवेश हुआ, जो पिछले साल के 22,840 करोड़ रुपये के मुकाबले 52 प्रतिशत अधिक रहा। वर्ष 2007-08 में निर्यात में पिछले साल के मुकाबले 92 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। पिछले चार सालों में निर्यात में 381 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। वित्तीय वर्ष 2008-09 के लिए एसईजेड के जरिये 125950 करोड़ रुपये के निवेश की संभावना है।

अब तो चेतो सरकार

कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली August 26, 2008



पहले बारिश का इंतजार और फिर विनाश लीला, यही बिहार की नियति बनर् गई है। बिहार के सुपौल, अररिया, मधेपुरा और सहरसा जिलों में बाढ़ की स्थिति गंभीर हो गई है और राहत के लिए सेना को बुला लिया गया है।

इस बीच बाढ़ पर राजनीति भी गरमाने लगी है। स्थिति पर चर्चा करने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बुधवार को प्रधानमंत्री से मिलने नई दिल्ली आ रहे हैं जबकि राजग अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में राजद और लोजपा के एक प्रतिनिधिमंडल ने आज यहां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात कर राज्य सरकार पर नाकामी का आरोप जड़ दिया।

विनाशकारी बाढ़ की वजह से पूर्वी बिहार के सहरसा, सुपौल, अररिया, पूर्णिया आदि जिलों में करोड़ों की फसलें बर्बाद हो गई है और जन-जीवन पूरी तरह से प्रभावित हो गया है। इन क्षेत्रों में चल रही व्यापारिक गतिविधियां पूरी तरह से ठप्प हो गई है। बाढ़ प्रभावित जिलों में ट्रेन की आवाजाही भी बाधित हो गई है।

रेल मंत्रालय ने कहा है कि बाढ़ की वजह से यात्री और माल ट्रेनों का आवागमन अवरूद्ध हो गया है, जिससे काफी घाटे का सामना करना पड़ रहा है। रेलमंत्री लालू प्रसाद ने कहा है कि इन जिलों के स्टेशनों पर बाढ़ में फंसे 200 से ज्यादा कर्मचारियों को सहायता प्रदान की जाएगी। मालूम हो कि 18 अगस्त को कोसी तटबंध में भारी कटाव आया और प्रतिदिन 1,30,000 क्यूसेक पानी पूर्वी बिहार के इलाकों में आने लगा।

आश्चर्यजनक रूप से इस बार कोसी ने अपना रास्ता ही बदल लिया है और ढ़ाई सौ सालों में यह पहली बार हो रहा है। बिहार के रेजिडेंट कमिश्नर सी के मिश्रा ने बिानेस स्टैंडर्ड को बताया कि बाढ़ की विभीषिका से बचाव और राहत के लिए राज्य सरकार हरसंभव कोशिश कर रही है।

बाढ़ से होने वाले नुकसान के लेखा-जोखा के लिए एक समिति बनाई जा रही है, जो जल्द ही अपनी रिपोर्ट केंद्र को सौंपेगी। उसके बाद केंद्र अपनी एक जांच टीम बिहार भेजेगा, जिसके आधार पर विशेष राहत पैकेजों की घोषणा की जाएगी।

बिहार के आपदा प्रबंधन विभाग के मुख्य सचिव आर के सिंह ने कहा कि राहत और बचाव कार्य के तहत लोगों के लिए 17000 खाने के पैकेट्स हेलिकॉप्टर के जरिये गिराया जा चुका है। लोगों को सुरक्षित स्थल पर ले जाने के लिए 290 नावों का इंतजाम किया गया है। बाढ़ में फंसे लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाने के लिए सेना की सौ जवानों वाली एक टुकड़ी दस मोटरबोट के साथ मंगलवार को मधेपुरा भेजी गई है।

राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग के अतिरिक्त सचिव प्रत्यय अमृत ने बताया कि राहत कार्य में जुटे वायु सेना के हेलिकॉप्टरों की संख्या में आज एक की बढ़ोतरी कर दी गई है। अब राहत पैकेट्स तीन के बजाय चार हेलिकॉप्टरों के जरिये भेजी जाएगी।

उन्होंने कहा कि सशस्त्र सीमा बल, सैप के जवान, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया दल और जिला पुलिस के सैकड़ों जवान को इन इलाकों में तैनात कर दिया गया है। बाढ़ से विस्थापित लोगों के लिए 64 पुनर्स्थापना कैंप लगाए गए हैं।

चिट्ठी न कोई संदेश, जाने...

कोसी का कहर

कुमार नरोत्तम / August 28, 2008



विलायत अकेला हो गया है। कल तक उसके परिवार में 15 लोग थे, मां थी, बच्चे थे, पत्नी थी और भाई भी था।

अपने घर बिहार के सुपौल जिले से कोसों दूर वह इसी परिवार की खुशियों को संजोए रखने के लिए दिल्ली में रेहड़ी लगाकर फल बेचा करता है। जैसे-तैसे कुछ पैसे जमाकर वह रोज अपने परिवार वालों से फोन के जरिये बात भी कर लेता था।

उसे कभी भी अपने परिवार से दूर रहने का एहसास नहीं हुआ था। लेकिन आज न तो फोन की घंटी बज रही है और न ही परिजनों की कोई खबर लग रही है। उसकी डबडबाती आंखे यह कह जाती है कि कोसी के कहर ने उसके परिवार की खुशियां ही शायद लील न ली हो। फिलवक्त उसके परिजनों का कोई अता-पता नहीं चल रहा है। यही हाल कमोबेश उन हर लोगों का है, जिनके परिजन बाढ़ में फंसे हुए हैं।

कोसी के पानी का कहर बदस्तूर जारी है। ऐसे में लोग अपनी जिंदगी को पानी में बहता हुआ देख रहे हैं। हर रोज पानी का स्तर बढ़ता जा रहा है। लोगों से सुरक्षित स्थानों पर जाने की अपील की जा रही है। आलम यह है कि सहरसा और आसपास की सड़कों पर यातायात खुले होने के बावजूद आवागमन का कोई साधन उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। गांव वाले अपने साथ माल-मवेशी लेकर भी भाग रहे हैं।

लोगों को जो साधन मिल रहे हैं, वे उसी के सहारे जान बचाकर भागने की कोशिश कर रहे हैं। ट्रैक्टर, ट्रक, बस, ठेला आदि यातायात साधनों को काफी इस्तेमाल किया जा रहा है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक अभी पिछले दिनों से लगभग डेढ़ लाख क्यूसेक पानी कोसी नदी से आ रही थी। पिछला रिकॉर्ड अधिकतम 5 से 6 लाख क्यूसेक पानी छोड़ने का रहा है।

दूसरी ओर पूरब में तटबंधों के बीच अधिकतम 10 किलोमीटर का विस्तार क्षेत्र कोसी नदी को प्राप्त था, जो अब बढ़कर 25 किलोमीटर हो गया है। इस तरह अगर 5 या 6 लाख क्यूसेक पानी छोड़ा जाता है, तो भी अधिक विस्तार क्षेत्र होने के कारण जलग्रहण क्षमता बढ़ी है और एक से डेढ़ फीट अधिक ऊंची पानी आने की आशंका बनती है। इस वजह से लोग बड़ी संख्या में पलायन कर रहे हैं।

कुछ इलाके ऐसे भी हैं, जहां कोसी की तेज रफ्तार होने की वजह से नाव भी नहीं पहुंच पा रहा है। कई इलाके में पानी के तेज बहाव के साथ मोबाइल के टावर भी बह गए हैं। इन इलाके में लोगों के लिए बाहर रह रहे अपने परिजनों से संपर्क साधित कर पाना पूरी तरह से अवरूद्ध हो गया है। दूसरी तरफ बाढ़ पीड़ितों के वे परिजन, जो बाहर रहते हैं, संपर्क साधित नहीं होने की वजह से काफी चिंतित हैं।

बाढ़ पीड़ित इलाके में बिजली की स्थिति काफी दयनीय हो गई है। ज्यादातर इलाकों में पानी बढ़ने की वजह से बिजली की आपूर्ति रोक दी गई है, ताकि किसी प्रकार की लोड शेडिंग की घटना से बचा जा सके। बिजली की आपूर्ति नहीं होने की वजह से मोबाइल धारी लोग अपना मोबाइल चार्ज नहीं कर पा रहे हैं। इस वजह से किसी से संपर्क स्थापित नहीं हो पा रहा है।

कुछ जगहों से ऐसी भी खबर आई है कि ट्रैक्टरों और ट्रकों पर जेनरेटर लगाकर गांव गांव जाकर मोबाइल आदि को चार्ज किया जा रहा है, ताकि लोगों की मोबाइल कनेक्टिविटी बनी रहे। दिल्ली में रह रहे बाढ़ पीड़ितों के परिजन भी बेहाल हैं। लक्ष्मी नगर के एक टेलीफोन बूथ पर फोन करने आए रमेश (सुपौल के निवासी) अपने परिवार जनों से संपर्क स्थापित नहीं होने की वजह से काफी चिंतित हैं।

वे कहते हैं, मेरा गांव पूरी तरह से पानी में डूबा हुआ है । पिछले दो दिनों से मैं अपने परिवार वालों से संपर्क साधने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन संपर्क नहीं हो पा रहा है। वे कहां हैं और किस हालत में हैं, ये सोचकर मेरा मन घबरा रहा है। शकरपुर स्कूल ब्लॉक बस स्टॉप की रेहड़ी पर ठेला लगाकर अमरुद बेचने वाला बिहार का निवासी भोला राम (अररिया का निवासी) भी अपने घरवालों की कोई खबर नहीं मिलने के कारण परेशान है।

गौरतलब है कि ग्रामीण इलाकों में पानी की तेज रफ्तार के कारण बीएसएनएल की सेवा भी पूर्णत: बाधित हो गई है। जाहिर तौर पर बाढ़ में फंसे लोगों की हालत तो मुहाल है हीं, बाहर रहने वाले उनके परिजन भी कोई खोज-खबर न मिलने की वजह से बेहाल हैं।

Friday, May 2, 2008

महंगाई की दर बढ़कर 7.57 फीसदी पर

02 मई 2008
सरकार की तमाम कोशिशों को धता बताते हुए महंगाई की दर, 19 अप्रैल को समाप्त सप्ताह में बढ़कर 7.57 फीसदी हो गई है। इसके पिछले हफ्ते में यह 7.33 फीसदी पर थी। यह लगातार पांचवा हफ्ता है जब महंगाई की दर सात फीसदी के ऊपर दर्ज की गई है।

मुद्रास्फीति की आज घोषित यह दर पिछले साढ़े तीन सालों में सबसे ज्यादा है। एक हफ्ते में सभी उत्पाद के दाम 0.03 फीसदी बढ़े। हालांकि फल व सब्जियों के दाम कुछ नियंत्रित होते दिखे।

सरकार ने बढ़ती मंहगाई को काबू में करने के लिए कमर कसते हुए पिछले महीने की शुरुआत में खाद्य तेलों के आयात शुल्क में भारी कटौती करने की घोषणा के साथ-साथ चावल तथा दाल के निर्यात पर पाबंदी सख्त करने का फैसला किया था। मक्के की उपलब्धता बढ़ाने के लिए इसके आयात पर शुल्क भी समाप्त कर दिया गया था।

लेकिन इन फैसलों का बड़ा असर असल कीमतों पर पड़ता नहीं दिख रहा है।

Thursday, May 1, 2008

वसुधैव आहार संकटम्

अब चिंता की कोई बात नहीं है। फोटू कमिटी के सामने महंगाई का विरोध करने वालों को जान लेना चाहिए कि अब महंगाई भारत की समस्या नहीं रही। चूंकि अब यह विश्व की समस्या है, इसलिए भारत में इसका हौव्वा भी नहीं खड़ा करना चाहिए। हमारे प्रधानमंत्री ने कहा भी कि इसका हौव्वा खड़ा करने से मुनाफाखोरों–कालाबाजारियों को मदद मिलती है।

बाजार के युग में कहां सरकार कोई कार्रवाई कर सकती है इन पर। फिर अब तो यह आहार संकट भ्रष्टाचार के समान विश्वच्यापी हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने इसे विश्व सकंट मान लिया है।

हमारा अपना बस तो हमारी पंचायत पर तो चलता है नहीं, फिर विश्व को हम क्या राह दिखाएं। जबकि ऐसे मौकों पर दुनिया को रास्ता दिखाना हमारा जिम्मेदारी है। विश्व के सबसे बड़े मॉल में अमेरिका में भी बड़ी उलझन है कि वह विश्व को कौन सी राह दिखाए। अब अमेरिकी डेमोक्रेट एक अश्वेत और औरत में तो फैसला कर नहीं पा रहे हैं। फिर आहार संकट पर कैसे फैसला कर पाएंगे।

पर यही क्या कम बड़ी बात है कि दुनिया भर में खाने पीने की चीजें 40 फीसदी महंगी हो गईं हैं। हमारा देश भी दुनिया में ही है। हम भी संसार के साथ कदम से कदम मिला कर चल रहे हैं।

हम हिंदुस्तानी बड़े ही स्वार्थी और अवसरवादी लोग हैं। हमें हर चीज मुफ्त में चाहिए। यह नहीं समझते कि सामान की बढ़ी हुई कीमत आपके स्टैंडर्ड ऑफ लीविंग को भी तो दर्शाती हैं। अगर इस नजरिए से देखेंगे तो महंगाई आपको तरक्की और प्रगति की पहचान भी दिखेगी।

हमेशा याद रखिए कि संसार को वसुधैव कुटुंबकम का संदेश हमने दिया है। ऐसी हालत में हमारे प्रधानमंत्री की यह भी जिम्मेदारी हो जाती है कि विश्व को आहार संकट से उबारें। भारत को विश्व का नेतृत्व करना है। यह कब तक चलेगा कि विश्व भारत का नेतृत्व करे। पहले विश्व अपना आहार संकट दूर करे। नहीं कर सकता तो हमें विश्व नेता मान ले।

हमारे कृषि मंत्री ने मान लिया है कि इस वर्ष गेहूं की रिकॉर्ड फसल हुई है। सरकार ने भी जम कर गेहूं की खरीद की है। अब आटा सस्ता नहीं हो रहा है तो आप जानते हैं कि पूरी दुनिया खाद्य संकट का सामना कर रही है।

हमारे सेवा कर वित्त मंत्री ने जो कहा वह तो चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र (यहां यह जानकारी देना जरूरी है कि हम पांचवीं पास नहीं हैं। इसलिए न तो यह जानते हैं कि चाणक्य कौन हैं, न यह कि यह अर्थशास्त्र क्या होता है) में भी ऐसा नहीं सोचा होगा जो हमारे वित्त मंत्री ने सोचा कि सरकार कीमतें रोकने के लिए अपनी आमदनी की भी कुर्बानी कर सकती है।

इसे आप सरकारी बोल वचन भर मत समझिए। अब तक आप हर सरकारी बात को सिर्फ बतक ही समझते आए हैं। इस बार सरकार जो कहा सो किया के मूड में है। इसका कारण भी है। अब सरकार को विश्व को राह दिखानी है। बस गर्मी गुजर जाने दीजिए। यहां गर्मी का मतलब ग्लोबल वार्मिंग वाली गर्मी नहीं है। यह कर्नाटक विधान सभा चुनाव की गर्मी है।

इसके बाद ही हम भारत के लोग नेतृत्व करेंगे वसुधैव आहार संकटम् का!

यार बोर हो गये।

गर्मियों के साथ छुट्टियों का मौसम भी शुरू हो जाता है। इस मौसम में तरह-तरह की बीमारियां फैलती हैं। इसमें एक बीमारी का नाम है, यार बोर हो गये।

यार बोर हो गये मल्टीपलेक्स वाले सिनेमा घरों में देखा जा सकता है। यह बस से ले कर रेल रिजर्वेशन की कतार में खड़ा हुआ पाया जाता है। अगर अभी भी किताब पढ़ते हों तो उसमें पढ़ा जा सकता है यार बोर हो गये।

इसे आप कपड़ों की शक्ल में पहन भी सकते हैं। पसीने के रूप में बहा सकते हैं। पांचवीं पास हैं तो जवाब बना सकते हैं। सांसद हैं तो प्रश्ननुमा भाषण दे सकते हैं। प्रधानमंत्री हैं तो मुनाफाखोरी के खिलाफ अपनी राय दे सकते हैं। इसे आप महंगाई बना कर खूब खाते हुए अनाज संकट पर कह सकते हैं कि यार बोर हो गये।

बोर होने की वजहों का शास्त्रीय सांस्कृतिक सर्वेक्षण के बाद इस नतीजे पर पहुंचा गया है कि इसका संबंध किसी उम्र से नहीं है। सामाजिक–आर्थिक–राजनीतिक सर्वेक्षण इस लिए नहीं किया गया कि उसमें बोर तत्व सनातन काल से शामिल है।

अब आप चाहें तो इसमें आपके घर में जमा हुआ टेलीविजन सेट के कार्यक्रमों को भी जोड़ लीजिए। आप जहां जाएंगे, हमें पाएंगे की शैली में इसे भौंकते हुए पाएंगे यार बोर हो गये।

अलग-अलग सर्वेक्षणकर्ताओं की यह राय जरूर है कि इसका संबंध दांपत्य जीवन से अवश्य है। इसे सर्वेक्षणकर्ताओं ने अनुभव किया है। पर प्रश्न के रूप में पति–पत्नी से पूछ नहीं पाए हैं। इसलिए इसे प्रमाणित नहीं माना जा सकता। फिर भी इस पर अनेक प्रकार के परीक्षण हुए हैं। उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसी पति में या किसी पत्नी में यह साहस नहीं होता कि एक दूसरे से, जरा प्यार से भी कह सकें कि यार बोर हो गये।

दरअसल सर्वेक्षणकर्ताओं ने यह भी पाया कि पतिगण पत्नियों से और पत्नीगण पतियों से सबसे ज्यादा बोर होते हैं। पर कहते नहीं हैं। कहने से बोरियत तो मिट जाती है। लेकिन दांपत्य जीवन का आनंद भी नष्ट हो जाता है।

ऐसी स्थिति में विभिन्न माध्यमों से पड़ोसियों को बोर कर परम आनंद को प्राप्त करते हैं। पड़ोसी धर्म को निभाने वाले अपने यार दोस्तों से जब अपने पड़ोसियों के बारे में बातचीत करते हैं तो उसकी समाप्ति इसी बात पर होती है कि हम अपने पड़ोसी से यार बोर हो गये।

सर्वेक्षणकर्ताओं ने यह भी पाया कि बोरियत को जन्म देने वाले कारणों में हमारे शिक्षण संस्थान भी हैं। अब आचार्य विष्णु शर्मा के पंचतंत्र का काल तो है नहीं कि बोर हुए कुमारों को रसमय कहानियों से शिक्षा दी जाए। अगर रसमय कहानियां बची खुची होती तो उन पर एक सीरियल या फिल्म न बन जाती।

अब तक पाठशाला से ले कर विश्वाविद्यालय हैं। कुछ लोग ऐसे पाठशालाओं को बोरालय भी कहते हैं। पर किसमें हिम्मत है जो कहे कि यार बोर हो गये।

इसे पढ़ कर जोर से कहें यार बोर हो गये!

रेस्तरां में खाने जा रहे हैं? सावधान

29 अप्रैल 2008
यदि आप अमेरिका जाने की सोच रहे हैं तो वहां के रेस्तरां में खाने से बचिए। एक नए अध्ययन के अनुसार अमेरिका में लगभग 7.6 करोड़ लोग रेस्तरां में भोजन करने के कारण कई प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हो गए हैं।

वनडर्बिट विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया गया है कि ज्यादातर लोग रेस्तरां में जाने से पहले वहां का कोई निरीक्षण नहीं करते।


लगभग 2000 वयस्कों पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि सभी ऐसा मानते है कि स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा रेस्तराओं का रोजाना निरीक्षण किया जाता है।

शोधकर्ता टिमोथी एफ.जोंस कहते हैं कि, “हमने अध्ययन में पाया कि उपभोक्ताओं को रेस्तराओं के बारे में धारणा रहती कि वहां तो साफ-सुथरा भोजन ही मिलेगा लेकिन उनकी ये धारणा अव्यावहारिक और सरासर गलत है।”

जबकि 50 फीसदी लोग सोचते थे कि साल में पांच से 12 बार वहां अधिकारियों द्वारा दौरा किया जाता है। शोधकर्ताओं ने बताया कि वास्तव में साल में सिर्फ दो बार रेस्तराओं का निरीक्षण किया जाता है। गौरतलब है कि अमेरिका के रेस्तराओं में हर साल 70 अरब डॉलर का खाद्य पदार्थ बिकता है जो कि देश के कुल खाद्य खर्च का 47 फीसदी है।

एड्स : संक्रमण की रोकथाम मुमकिन

एड्सः संक्रमण की रोकथाम मुमकिन

30 अप्रैल 2008

वाशिंगटन। मनुष्य के शरीर की कोशिकाओं में एक ऐसे प्रोटीन का पता लगा लिया गया है जिसे रोककर एचआईवी के संक्रमण को रोका जा सकता है। यह बात एक नए अध्ययन में सामने आई है।

पहले चिकित्सक इसके लिए ‘मल्टीड्रग’ प्रणाली का प्रयोग करते थे जिसमें मरीज को अलग-अलग दवाएं दी जाती हैं। इस पद्धति में ढेरों खतरे थे क्योंकि इसके दुष्परिणाम बहुत अधिक थे।

चूंकि ‘एचआईवी वायरस’ में तेजी से बढ़ने और बदलने की क्षमता होती है। इसलिए वे दवाओं द्वारा आसानी से काबू में नहीं किए जाते। अपने शोध में ‘बोस्टन विश्वविद्यालय’ के एंड्रयू जे. हेंडरसन और ‘एनएचजीआर आई’ संस्था के शोधकर्ताओं ने पाया कि जब वे आईटीके नामक प्रोटीन को रोकने में सफल रहे तो एचआईवी संक्रमण को बढ़ाने वाली ‘टी’ कोशिकाओं की वृद्धि भी रूक गई।

‘नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस’ में प्रकाशित अध्ययन के निष्कर्ष में शोधकर्ता इरिक डी. ग्रीन ने बताया है कि यह ये निष्कर्ष एचआईवी संबंधित शोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

Wednesday, April 30, 2008

ज़िंदगी के करीब 35 साल दूसरे देश पाकिस्तान के जेल में बीत गए-आसान तो नहीं होता पर कहते हैं न कि अगर किसी की याद दिल में बसा लो, तो वक़्त कट ही जाता है. या किसी चीज़ की लौ दिल में जला लो, समय निकल जाता है.

कश्मीर सिंह की डायरी पर राय भेजिए

जब-जब उदासी घिरने लगती और मन परेशान हो जाता तो मैं किताबों की आगोश में खो जाता. क़िताब का एक-एक शब्द जैसे एक-एक ज़ख़्म पर मरहम लगाने की कोशिश कर रहा हो- मन को बड़ा सुकून मिलता था.

किताब, रसाले, उपन्यास जो हाथ लगता पढ़ डालता था.

जब मैं भारत से पाकिस्तान आया था तो मेरे बच्चे बहुत छोटे थे. उनकी याद सताती थी मुझे लेकिन कुछ कर नहीं सकता था- मजबूर था.

नाज़ुक दिल आपके दर्द को और गहरा कर देता है. सो बाद में मैने ये सोचना कम कर दिया कि बच्चे क्या कर रहे होंगे क्योंकि अगर दिलो-दिमाग़ में हर वक़्त यही ख़्याल रहता तो मैं जेल में ज़िंदा बचता ही नहीं.

बस ख़ुद को यही तसल्ली देता रहा कि बच्चे जहाँ भी होंगे सही-सलामत ही होंगे.

(पाकिस्तानी जेल में 35 साल तक क़ैद रहे भारत के नागरिक कश्मीर सिंह की आख़िरी डायरी आप बीबीसी हिंदी डॉट कॉम पर अगले हफ़्ते पढ़ सकते हैं. इस लेख पर अपनी राय हमें hindi.letters@bbc.co.uk पर भी भेज सकते हैं.)

फ़रिश्ता कहूँ या अवतार...


अंसरा बर्नी ने कश्मीर सिंह की रिहाई में अहम भूमिका निभाई

जेल में रहते हुए 1988 में मुझे पक्षाघात भी हो गया. वक़्त के थपेड़ों ने तन-मन दोनों को कमज़ोर करना शुरू कर दिया था. जैसे-जैसे समय बीतता गया जेल से रिहा होने के आसार कम होते नज़र आने लगे.

ज़िंदगी जैसे-तैसे कट रही थी - किसी लंबे, रहस्यमय अंतहीन उपन्यास की कहानी के जैसी ज़िंदगी,वो कहानी जिसे शुरू करने के बाद छोड़ दिया गया हो और जिसे अपने अंजाम की तलाश हो.

उसी दौरान एक फ़रिश्ता आया मेरे जीवन में- अंसार बर्नी. उनसे मिलने के बाद हालात ने अजब तरीके से करवट बदले और जो कुछ भी अच्छा हुआ वो पाकिस्तान के पूर्व मानवाधिकार मामलों के मंत्री अंसार बर्नी की ही मेहरबानी है.

मेरे लिए तो वे अवतार बनकर आए- भगवान कहिए, वाहे गुरु कहिए या अल्लाह समझ लो.

वर्ष 2008 के जनवरी महीने में बर्नी साहब जेल का दौरा करने आए. अंसार बर्नी मेरी चक्की भी आए. चक्की मतलब वो क्वार्टर जहाँ मैं बंद था.

क़ैदियों से पूछा गया कि हमारी सज़ा कितने साल की है. उसी दौरान मैने बताया कि सज़ा-ए-मौत सुनाए हुए मुझे 30 से ज़्यादा साल हो गए हैं.

अंसार बर्नी ने बस इतनी बात सुनी और मेरा नाम लिखकर ले गए. मेरा ही नहीं, वहाँ जितने भी क़ैदी थे जिनकी सज़ा को 10 साल हो चुके थे, वे सबका नाम ले गए.

इन 14 लोगों में सरबजीत सिंह का नाम भी शामिल था. पाकिस्तान के राष्ट्रपति के पास माफ़ीनामी के लिए अपील गई. उन्हें बताया गया कि मैं 35 साल से यहां बंद हूँ.

पिछले 35 सालों से समय का पहिया जैसे मेरे लिए रुका हुआ था. फिर चंद ही महीनों में समय का चक्का ऐसा सरपट दौड़ा कि अभी तक उससे कदमताल करने की कोशिश में जुटा हूँ.

बर्नी साहब से मिलने के कुछ महीनों के अंदर ही मेरी कोठी तोड़ दी गई..आपकी भाषा में बोलूँ तो पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने मुझे रिहा करने का आदेश दे दिया.

पंछी बनूँ उड़ता फिरूँ मस्त गगन में


कश्मीर सिंह की पत्नी और बेटे ने बरसों उनका इंतज़ार किया

तीन दशकों तक मैने काल-कोठरी के अंधेरे में तन्हा जीवन बिताया था. इतने सालों बाद जब बाहर क़दम रखा तो आँखों को चौंधियाती रोशनी मिली, नीला आसमां देखा, आसमां में उड़ते पंछी देखे. खुली हवा में साँस लेने को मिला तो ऐसा महसूस हुआ कि मैं बस अभी-अभी पैदा हुआ हूँ....इसके आगे सोचने-समझने का मन भी नहीं था मुझे,शब्द गौण हो गए थे.

भगवान ने मुझे नई ज़िंदगी दी थी, जेल से निकलकर मैं गुरुद्वारे गया और मत्था टेका.

रात एक आलीशान होटल में बिताने को मिली..मन में उत्सुकता थी. तीन मार्च 2008 को मैं रिहा हुआ और चार मार्च को मुझे बड़ी इज़्ज़त के साथ वाघा बॉर्डर पर छोड़ दिया गया.

बाक़ायदा मेरा पासपोर्ट बनाया गया था. मुझे पाकिस्तानी पुलिसवालों के हवाले नहीं किया गया. सीधा भारत भेज दिया गया अपने परिवार के पास-जैसे किसी भी व्यक्ति को भेजा जाता है जो पासपोर्ट के ज़रिए यहाँ से वहाँ जाता है..अदब से.

भारत-पाक सीमा पर देखा तो टीवी चैनलों और पत्रकारों का हुजूम उमड़ा हुआ था..अचानक मैं उनकी नज़रों में ‘अहम’ शख़्स बन गया, हर कोई इंटरव्यूह लेना चाहता था.

कुछ देर के लिए रब्ब ने मुझे एक ऐसी ऊँचाई पर ज़रूर पहुँचाया दिया था जहाँ लगे कि आप बड़ी हस्ती हैं लेकिन मैं इस सब के काबिल नहीं हूँ.

ख़ैर भारत की सीमा में क़दम रखा तो आँखें अपने नन्हे मुन्ने बच्चों को तलाश रही थीं. जब जेल में था तो हमेशा मन में यही तस्वीर रहती थी कि एक दिन जब वापस आऊँगा तो मेरे बच्चे मुझे वैसे ही मिलेंगे जैसा मैं उन्हें छोड़कर आया था. और अब जब भारत लौटा हूँ तो बच्चे वैसे ही मिल भी गए हैं.

बस फ़र्क यही है कि मैं दो बेटे छोड़ कर गया था, अब वापस आया हूँ तो जिस उम्र के बेटे छोड़ कर गया था अब उसी उम्र के पोते मिल गए हैं. एक बेटी थी पहले मेरी पर अब चार बेटियाँ और मिल गई हैं- मेरी दो बहुएँ और दो पोतियाँ भी तो बेटियों समान हैं.

एक बेटा मेरे साथ अब गाँव में ही रहता है. वहीं दूसरा बेटा इटली में काम करने गया हुआ है. मुझे मिलने वो इटली से भारत आया था कुछ दिन पहले. हम दोनों ने एक दूसरे से मुलाक़ात की.

लेकिन पता नहीं क्यों इटली वापस जाते समय न वो मुझसे मिलने आया न मैं उससे मिला...... वो एक-दो रोज़ मुझसे मिला लेकिन फिर मिलना शायद उसे पसंद न आया हो. बहुत सारी बातें अनकही-अनसुलझी रह गई.

मेरी बिटिया रानी भी इटली में रहती है और जून में अपने बेटे के इम्तिहान के बाद मुझसे मिलने आएगी. मुझे इंतज़ार रहेगा....

(अगली बार डायरी की आख़िरी कड़ी में ज़िक्र उन भारतीय क़ैदियों का जिन्हें मैने पाकिस्तानी जेल में देखा है, बात अपने गाँव में आने के बाद के अनुभवों की और वहाँ अपनी पुरानी पहचान तलाश कर रहे कश्मीर सिंह की)

(35 साल पाकिस्तान की जेल में बिताने के बाद कश्मीर सिंह चार मार्च 2008 को अपने वतन लौटे हैं. कश्मीर सिंह के जीवन के अनुभवों पर आधारित यह श्रृंखला बीबीसी संवाददाता वंदना से उनकी बातचीत पर आधारित है. इस डायरी की आख़िरी कड़ी आप अगले हफ़्ते पढ़ पाएँगे)

Wednesday, March 19, 2008

दलालों को ही सट्टा लगाने दें, आप जब भी निवेश करें, आंख कान खुला रखें।

सत्येन्द्र प्रताप

बाजार के बड़े-बड़े खिलाड़ी भी वायदा बाजार की चाल समझने में गच्चा खा जाते हैं। शेयर बाजार में पैसा लगाना, उससे मुनाफा कमाने इच्छा आज हर उस भारतीय को है जो कुछ पैसे अपनी तनखाह से बचा लेता है। बाजार गिर रहा है, बाजार चढ़ रहा है। वह देखता है, सोचता है- लेकिन क्या तमाशा है उसे समझ में नहीं आता।आईपीओ की बात करें तो रिलायंस जैसे ही बाजार में आया उसका शेयर बारह गुना ओवर सब्सक्राइब हुआ। वास्तविक धरातल पर कंपनियों के पास कुछ हो या न हो अगर बाजार में एक बार शाख बन गई या किसी तरीके से बनाने में कामयाब रहे तो रातोंरात अरबपति और खरबपति बनते देर नहीं लगती। शेयर का दाम भी बंबई शेयर बाजार में बेतहाशा बढ़ता है। किस तरह बढ़ता है? पता नहीं। इसका कोई ठोस आधार नहीं है। इसीलिए तो इसे वायदा कारोबार कहते हैं। आम लोगों को लगता है कि कंपनी को लाभ हो रहा है इसलिए शेयर बढ़ रहा है, लेकिन हकीकत इससे अलग है। किसी कंपनी का शेयर जनवरी में ४० रुपये का है तो फरवरी में वह ६० रुपये का हो जाता है। हालांकि कंपनी जब अपना तिमाही मुनाफा पेश करती है तो महज १०-१५ प्रतिशत लाभ दिखाती है। स्वाभाविक है शेयर भहराएगा ही। कुछ कंपनियां तमाम प्रोजेक्ट दिखाकर कृत्रिम बढ़त को सालोंसाल बनाए रखती हैं। सपने दिखाती रहती हैं और जनता से पैसा खींचती रहती हैं। अब कंपनी की दूरगामी परियोजनाओं की सफलता पर निर्भर करता है कि वे बाजार में टिकी रहती हैं या सारा पैसा लेकर रफूचक्कर हो जाती हैं। यह भी संभव है कि कृतिमता कुछ इस तरह बनाई जाए कि एक कंपनी की ३०० परियोजनाएं हों और जिसमें सबसे ज्यादा निवेश हो जाए उसे बर्बाद बता दिया जाए। बाकी के शेयरों में खुद निवेश कर कृत्रिम बढ़त बनाए रखा जाए।इन सभी तथ्यों से आम निवेशक को हमेशा सावधान रहने की जरूरत है। भारतीय शेयर बाजार में वर्ष 1930 में बॉम्‍बे रिक्‍लेमेशन नामक कंपनी सूचीबद्ध थी जिसका भाव उस समय छह हजार रुपये प्रति शेयर बोला जा रहा था, जबकि लोगों का वेतन उस समय दस रुपए महीना होता था। कंपनी का दावा था कि वह समुद्र में से जमीन निकालेगी और मुंबई को विशाल से विशाल शहर में बदल देगी लेकिन हुआ क्‍या। कंपनी दिवालिया हो गई और लोगों को लगी बड़ी चोट। अब यह लगता है कि अनेक रियालिटी या कंसट्रक्‍शंस के नाम पर कुछ कंपनियां फिर से इतिहास दोहरा सकती हैं। आप खुद सोचिए कि ऐसा क्‍या हुआ कि रातों रात ये कंपनियां जो अपने आप को करोड़ों रुपए की स्‍वामी बता रही हैं, आम निवेशक को अपना मुनाफा बांटने आ गईं।इसमें किसी भी तरह का फ्राड संभव है और ऐसा न हो कि बरबादी के बाद रोने पर आंसू भी न आए। हमेशा ठोस परियोजनाओं और ठोस कारोबार की ओर नजर रखें और लाभ के चक्कर में किसी एक कंपनी में बहुत ज्यादा निवेश न करें। इसी में भलाई है।

दलाई लामा का दर्द

नरोत्तम
भगवान बुद्ध के अनुयाइयों ने कभी सोचा भी न होगा कि उन्हें अपनी जिंदगी के लिए इतना संघर्ष करना पड़ेगा। होता भी कुछ ऐसा है कि आम लोगों की रक्षा का ढोंग करने वाले वर्तमान चालू कम्युनिष्टों ने सीधे सादे लोगों का जीना दूभर कर दिया है। हालत यहां तक पहुंच गई है कि तिब्बत में जो लोग बचे हैं वे मौत के दिन गिन रहे हैं। दलाई लामा का नाम लेते हैं और जिंदा हैं। उन्हें आस है फिजां बदलेगी। दलाई लामा भी अपनी लड़ाई लड़े जा रहे हैं, लेकिन पूंजीवादी दुनिया में शान्ति के इस पुरोधा की सुनने वाला कौन है।धर्मशाला मे मंगलवार को दलाई लामा के अनुयायियों ने शक्ति प्रदर्शन किया और ये साबित करने की कोशिश की के अभी भी दलाई लामा ही तिब्बतियों के सर्वोच्च नेता हैं, बेशक कुछ संगठन उनसे सहमत ना हों. इन प्रदर्शनों के बीच ही दलाई लामा ने उन संगठनों के नेताओं से बातचीत भी की जो उनसे सहमत नहीं हैं. तिब्बतियों के धर्मगुरु दलाई लामा के प्रवक्ता के अनुसार दलाई लामा ने उन्हें संघर्ष का तरीक़ा बदलने की सलाह दी. इन संगठनों में निर्वासित तिब्बतियों की यूथ कांग्रेस, डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ तिब्बत और कई संगठनों के नेता शामिल थे.
दलाई लामा ने इन नेताओं से चीन सीमा की तरफ़ जारी संगठनों के मार्च को रद्द करने के लिए कहा है. हांलाकि दलाई लामा के प्रवक्ता का कहना है अब ये संगठनों की ज़िम्मेदारी है की वो दलाई लामा की बात को मानते हैं या नहीं. संगठनों की तरफ से तो आक्रोश नजर आता है लेकिन शान्ति के पुजारी दलाई लामा अपने क्रोध को पी चुके हैं। शायद उन्हें भी समझ में नहीं आ रहा कि जो जनता उन्हें देवता मानती है, अवतार मानकर पूजा करती है उनकी रक्षा कैसे की जाए।