Thursday, September 4, 2008

बिहार में क्या मुद्दा नहीं है

बिहार सम्पूर्ण भ्रांति में घिसटसामाजिक अन्याय का प्रदेश रहा हैता हुआ भीषण , रखा गया है और उसे ऐसा ही बनाए रखा जाएगा। आजादी के बाद से अब तक जितने भी 31 मुख्यमंत्री हुए, श्रीकृष्ण सिंह से लेकर कृष्ण वल्लभ सहाय, बीपी मंडल और कर्पूरी ठाकुर, जगन्नाथ मिश्र से लेकर लालू यादव और नीतीश कुमार तक सब एक ही धूर्त नस्ल के रहे हैं। इनकी मक्कारी के कारण पैदा होती रही सिलसिलेवार वजहों से बिहार आज इस दुर्दशा तक पहुंचा है और विध्वंस की चरम स्थिति तक जल्दी ही पहुंचने वाला है। बिहार की इस नकारात्मक विकास-यात्रा के संवाहक लीडरों में इतनी भी पुंसकता नहीं कि वे इस पर सार्थक बहस में उतरने का साहस करें। वे बहस में उतरने का केवल स्वांग भरते हैं। दरअसल वे बहस में नहीं, कलह में उतरते हैं। एक दूसरे को गरियाते हैं। बेटी-रोटी करते हैं या कमजोर पड़ने पर हास्य अभिनेता के भौंडे रोल में उतरने से जरा भी नहीं हिचकते। बिहार में बाढ़ मुद्दा जरूर है। लेकिन आप बताएं कि बिहार में क्या मुद्दा नहीं है। यह अलग बात है कि मुद्दा बनता नहीं है...

बिहार में बाढ़ को लेकर तमाम अखबारों में खबरें आ रही हैं। विजुअल मीडिया भी बिहार की बाढ़ पर पिला पड़ा है। बाढ़ की त्रासदी को लेकर चाहे प्रिंट मीडिया हो या विजुअल मीडिया, दोनों ही अपनी संवेदनशीलता दिखा रहे हैं, या दोनों ही, बाढ़-त्रासदी को बाजार में बेच रहे हैं। बिहार में बाढ़ अभी प्रलय का रूप नहीं ले रही है। लेकिन वह समय भी जल्दी ही आने वाला है जब बिहार केवल भारत के नक्शे की निशानी के बतौर रह जाएगा और वहां कोशी, बागमती और बूढ़ी गंडक जैसी नदियां हहराती हुई गंगा की धार में मिलती बहती दिखेंगी और बिहार तल में होगा। सम्पूर्ण मीडिया बाढ़ के प्रकोप और उससे आक्रांत लोगों की त्रासदी दिखा रहा है, प्रशासनिक नाकामियां और नेपाल की बदमाशियां दिखा रहा है, लेकिन असली जख्म कहां है, मीडिया को दिख नहीं रहा, इसलिए दिखा नहीं रहा। आम फहम बात चलती है कि राजनीतिक रूप से बिहार बहुत ही जागरूक प्रदेश है। लेकिन आप मानें कि बिहार के लोग राजनीतिक-सामाजिक जागरूकता की दृष्टि से बिल्कुल मूढ़ हैं। उन्हें जागरूक बता-बता कर कुछ नेताओं ने बिहार के लोगों को बेवकूफ बनाया है, उन्हें बेचा है। इतना बेचा कि आज बिहारियों की कोई कीमत और कोई वकत नहीं रह गई। जिस प्रदेश के लोग आजादी के बाद से आज तक अपने सरोकारों के प्रति जागरूक नहीं हो पाए, जो अधिकार-अधिकार का प्रलाप करते रहे और अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं हो पाए, जिन्हें सड़क-बांध और नदियों-नालों की सुरक्षा के प्रति कोई जागरूक-चिंता नहीं रही, जो जानवर की हद तक जाकर जीने के लिए तैयार होते रहे, उस नागरिक-जमात को जागरूक बताना उसे बेवकूफ बनाना ही तो है। बुद्ध-महावीर की धरती, चाणक्य और चंद्रगुप्त की धरती, अंगराज कर्ण और महावीर जरासंध की धरती, महान अशोक की धरती, वीर कुंअर सिंह की धरती, खुदीराम बोस की धरती, राजेंद्र प्रसाद और जयप्रकाश नारायण की धरती, दिनकर और गोपाल सिंह नेपाली की धरती... और जाने क्या-क्या बता बता कर इस प्रदेश में मूढ़ता का सुनियोजित सृजन किया गया। पूर्वज हाथी पालते थे, हम हाथी बांधने की जंजीरें भांजने की नितांत मूर्ख हरकतों में लगे हैं। विडम्बना यह है कि बिहार के लोगों को जागरूक बता कर सामाजिक-मूढ़ता का नियोजित विस्तार करने वाले वे सारे 'लीडर’ उत्तर-स्वतंत्रता-काल से लेकर बिहार की सम्पूर्ण क्रांति और सामाजिक न्याय तक के स्वयंभू ठेकेदार हैं। उनके घर बाढ़ में नहीं बहते। उनके बच्चे राहत सामग्री के लिए टकटकी बांधे नहीं रहते। उनके घर की महिलाओं को बाढ़ के पानी में जंघा तक कपड़े उठाए चलने की व्यथा नहीं झेलनी पड़ती। वे हेलीकॉप्टर से फेंकी गई कृपादृष्टि और राहत सामग्री के कातर पात्र नहीं। वे तो उड़नखटोले पर विचरण करते हुए भेंड़-बकरियों के सदृश बिहार के लोगों पर सामाजिक न्याय की समग्र दृष्टि डालते हैं। बात सुनने में कड़वी जरूर है, लेकिन हेलीकॉप्टर में दूरबीन लिए बैठे नेता को हेलीकॉप्टर की चक्रवाती हवा में महिलाओं के उड़ते बिखरते कपड़ों को देखते और कुत्सित मौज लेते मीडिया के न जाने कितने साथियों ने देखा होगा, लेकिन यह उनके लिए मुद्दा नहीं है। बात सुनने और कहने दोनों में कड़वी है, लेकिन इससे कब तक बचेंगे! सच को दबाए रखने और छद्म को उघारे रखने के कारण ही तो बिहार की यह दशा हुई है।

बिहार सम्पूर्ण भ्रांति में घिसटता हुआ भीषण सामाजिक अन्याय का प्रदेश रहा है, रखा गया है और उसे ऐसा ही बनाए रखा जाएगा। आजादी के बाद से अब तक जितने भी 31 मुख्यमंत्री हुए, श्रीकृष्ण सिंह से लेकर कृष्ण वल्लभ सहाय, बीपी मंडल और कर्पूरी ठाकुर, जगन्नाथ मिश्र से लेकर लालू यादव और नीतीश कुमार तक सब एक ही धूर्त नस्ल के रहे हैं। इनकी मक्कारी के कारण पैदा होती रही सिलसिलेवार वजहों से बिहार आज इस दुर्दशा तक पहुंचा है और विध्वंस की चरम स्थिति तक जल्दी ही पहुंचने वाला है। पूछिए कर्पूरी ठाकुर के समकालीन किसी भी राजनीतिक या समाजसेवी से। अगर वह आपको ईमानदारी से बताए कि कैसे वे चूड़ा-दही जीम कर सुबह-सुबह पिछले दरवाजे से निकल जाते थे। अपने कुर्ते की जेब में दतवन [दातुन] रखते थे। उनके घर जनता का जमावड़ा लग जाता तो करीब बारह-एक बजे वे सामने के रास्ते से परेशान-हाल दतवन करते पैदल आते दिखते। जनता स्तब्ध उन्हें देखती रहती और कर्पूरी जी उन्हें समझाते, 'आप ही लोगों के काम में सुबह से लगा रहता हूं, मुंह तक धोने का टाइम नहीं मिलता।’ चमत्कृत लोग अपनी बात बताना भी भूल जाते और फिर भी प्रभावित होकर जाते कि लीडर जनता के काम में इतना व्यस्त है कि दोपहर तक मुंह भी नहीं धो पाता। इस तरह के नियोजित छद्म से ही बिहार के नेताओं की दुकानें चलती रही हैं। जब जननायकों की छवि वाले लीडरों का यह असली चेहरा था तो लालू-नीतीश जैसे नेताओं के आडम्बर के स्तर के बारे में एक बिहारी क्या समस्त देशवासी आसानी से समझ सकता है। लालू-राबड़ी शासनकाल में सड़कों की दुर्दशा के बारे में उनसे पूछा जाता था, तो लालू सामाजिक न्याय की नायाब परिभाषाएं रचते थे। पक्की सड़क को सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक बताते थे और लोगों को सावधान करते थे कि पक्की सड़कें बनीं तो पुलिस गांव तक पहुंच जाएगी। बिहार के विकास-पुरूष लालू पक्की सड़क और ठोस ढांचे का विरोध करते हुए, चारा खाते हुए अपना ढांचा ठोस करने में कामयाब रहे। ललित नारायण मिश्र की हत्या पर चुप्पी साधे रहने के एवज में मुख्यमंत्री का पद पाए शिक्षक डॉ. जगन्नाथ मिश्र की वैभव यात्रा, फुलवारीशरीफ के पशुपालन विभाग के सीलन भरे कमरे में जिंदगी जीने वाले निम्न दर्जे के छात्र रहे लालू यादव और राजेंद्र नगर से कंकड़बाग तक किराए का कमरा ढूंढ़ने वाले नीतीश कुमार के भौतिक उठान और चारित्रिक गिरान का ग्राफ आपको बिहार की सड़कों और बांधों के जर्जर होने की कहानी तो बता ही रहा है।

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण कहता है कि प्रखरता और मूढ़ता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। 'इंटेलिजेंस’ और 'इडियॉसी’ दोनों साथ-साथ ही चलती है। बिहार में 'इंटेलिजेंस’ का दौर कभी था। अभी 'इडियॉसी’ का दौर चल रहा है। या कहें 'इंटेलिजेंस’ आजादी के बाद बिहार पर राज करने वाले राजनीतिकों के ठेके में रही और 'इडियॉसी’ बिहार के आम आदमी के मत्थे मढ़ी जाती रही। बिहार में बाढ़ मुद्दा जरूर है। लेकिन आप बताएं कि बिहार में क्या मुद्दा नहीं है। यह अलग बात है कि मुद्दा बनता नहीं है। क्या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बाढ़ से राहत दिलाने में असमर्थता जताना राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है? अपने शासन के लम्बे 15 अराजक साल भूल कर नीतीश कुमार पर लालू यादव का कटाक्ष करना क्या मुद्दा नहीं? नेपाल की तरफ से कोशी का पानी लगातार छोड़े जाने के कृत्य के खिलाफ केंद्र सरकार का कूटनीतिक हस्तक्षेप न करना क्या मुद्दा नहीं है? 31 मुख्यमंत्रियों से बिहार के विकास और उनके व्यक्तिगत विकास का फर्क पूछने और पाई-पाई हिसाब लिए जाने का मुद्दा न तो कभी मीडिया को दिखा है और न धंधा करने वाले सामाजिक संगठनों को। बिहार में तमाम किस्म की अधोवृत्तियां कर रही राजनीतिक पार्टियों से तो कुछ सकारात्मक लोकतांत्रिक अपेक्षा रखना वैसा ही है जैसे बिहारियों को बहुत जागरूक बता कर लल्लू का उल्लू साधना। बिहार की इस नकारात्मक विकास-यात्रा के संवाहक लीडरों में इतनी भी पुंसकता नहीं कि वे इस पर सार्थक बहस में उतरने का साहस करें। वे बहस में उतरने का केवल स्वांग भरते हैं। दरअसल वे बहस में नहीं, कलह में उतरते हैं। एक दूसरे को गरियाते हैं। बेटी-रोटी करते हैं या कमजोर पड़ने पर हास्य अभिनेता के भौंडे रोल में उतरने से जरा भी नहीं हिचकते। बाढ़ तो बिहार के लिए मौसम की तरह है। आजादी के बाद से आज तक बांधों की कोई देखरेख नहीं हुई। अब तक 31 मुख्यमंत्री आए और गए। जो बिहार को कायदे से जानते समझते हैं, बिहार के भूगोल का ज्ञान और बिहारी नेताओं का मनोविज्ञान समझते हैं, वे यह जानते हैं कि प्रदेश के सारे बांध अतिक्रमण में है। बांधों पर लोगों के घर बने हैं। बंधे काट-काट कर खेतों में मिला दिए गए हैं। बांध पशुओं के बांधने और उनका चारा-भूंसा रखने की जगह बन चुके हैं। पशुओं का चारा-भूंसा रखने की वजह से चूहे उन जगहों को पोपला कर चुके हैं। हर साल जब नदियां उफनाती हैं तो उन पोपले स्थानों से मैदान में उतर कर सामाजिक न्याय का खौफनाक दृश्य दिखाती हैं। उसी सामाजिक न्याय का, जिसकी दलीलें देकर लालू जैसे नेता बांधों पर ग्रामीणों के अतिक्रमण को उचित ठहराते रहे हैं और बाढ़ आने पर मीडिया के समक्ष बड़े गौरव बोध से कहते रहे हैं, 'ई बाढ़ आप लोगों के लिए न मौसमी खबर है। ई आता है तो महीना दू महीना ई गांव वाला सब को सब्जी का इंतजाम नहीं न करना पड़ता है। मछली का पूरा इंतजाम रहता है, सब लोग खूब मौज में पिकनिक मनाता है। आप लोग बाढ़-बाढ़ करते रहिए।’ लालू के शासनकाल में बिहार में बाढ़ मछलियां और ग्रामीणों के लिए 'पिकनिक’ लेकर आती है, लेकिन नीतीश के शासन में विपदा। यही बिहार के राजनीतिकों का असली स्तर है। इनसे आप अपेक्षा कर सकते हैं कि ये किसी मुद्दे पर गम्भीर हों, सार्थक बहस में उतर सकें और उसके समाधान का शिद्दत से रास्ता तलाश सकें!

बिहार की नदियों का जायजा लें। शहर के नाम पर स्लम का विस्तार पूरे प्रदेश को ग्रस चुका है। नदियां सिमटती चली गईं। करीब करीब सभी नदियों ने बिहार में अपना पाट छोड़ दिया है। अब पता ही नहीं चलता कि नेताओं के चरित्र की तरह नदियों के पाट कहां खो गए। नदियों के तल मलबों और शहरी व कस्बाई कचरों से भर रहे हैं। तालाब और झीलें रहने के लिए भर कर समतल बना डाली गइं, तो आप क्या सोचते हैं कि नदियों का पानी अपने मूल स्रोत से बढ़ेगा तो कहां जाएगा? पानी को तो बहना ही है, तो वह पूरे बिहार के ऊपर से बहेगा। आप याद करिए, गंगा के किनारे बसी राजधानी पटना का पुराना दृश्य। हहराती लहराती गंगा पटना में कितना मनोरम दृश्य दिखाती थी। हरियाली से घिरे शहर के किनारे गंगा में बड़े बड़े जहाज ऐसे चलते थे जैसे मिसीसीपी नदी, टेम्स या नील नदी में चलते हों। गंगा का पानी ऐसा साफ कि अंजुरी भर कर पी लें। आज बिहारियों के मल-मूत्र से भरी गंगा क्या आपको नहीं दिखती? मिसीसीपी, टेम्स वगैरह तो आज भी अपने मौलिक स्वच्छ स्वरूप में है लेकिन पटना की गंगा कहां सिमट गई, कभी सोचा है इसे? अगर सोचा गया तो क्या इसे कभी मुद्दा बनाया गया? अगर गंगा में बाढ़ आई और सोन नदी को गुस्सा आया तो पटना का क्या होगा। सत्तर के दशक में आई बाढ़ के बाद तो पटना के लोगों ने हर बारिश में ही उतना पानी, उतनी बीमारी और उतनी राजनीतिक बेचारगी झेल ली।

बिहार की बांधें इसलिए जर्जर हैं क्योंकि वहां के लोग जर्जर हैं। बिहार की नदियां मलबे और गंदगियों से इसलिए भरती चली जा रही हैं क्योंकि बिहार के लोग खुद कचरा हैं। बिहार के नेता इसलिए स्खलित हैं क्योंकि हम आप स्खलित हैं। हम हीन हैं। हम सामाजिक न्याय जैसी मक्कार शब्दावलियों की साजिश के शिकार हैं। बिहार के लोगों को कितना न्याय मिल गया, वह सब सामने है। पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र व अन्य राज्य के लोगों को पंजाबी, बंगाली, मराठी वगैरह कहने में गर्व होता है, पर बिहार के लोगों को खुद को बिहारी कहने में शर्म आती है। बिहार के क्षुद्र लीडर बिहार के लोगों में बिहारी होने के ऐतिहासिक गौरवबोध की स्कूलिंग तक नहीं कर पाए, आत्मसम्मान नहीं जाग्रत करा पाए, स्वाभिमान और स्वावलम्बन नहीं दे पाए, रोटी के लिए मारा-मारा फिरने के लिए छोड़ दिया, उस राज्य के लोगों को असम से लेकर महाराष्ट्र तक अपमानित तो होना ही पड़ेगा। यह लालू-कर्पूरी मंडल का सामाजिक न्याय ही तो है। टुकड़ों में विभक्त, टुकड़े के लिए लालायित!

हममें सच स्वीकार करने का माद्दा नहीं। विज्ञान का नियम जीवन पर लागू होता है, कम से कम उसे तो मानें। हम जैसा चरित्र और व्यवहार रखते हैं, करते हैं, प्रकृति वैसा ही व्यवहार और चरित्र हमें प्रत्यावर्तित करती है। आप याद करें वही सहरसा मधेपुरा जहां के लोग आज भीषण बाढ़ से आक्रांत हैं, वहां कभी अस्सी के दशक में बदला घाट रेल हादसा हुआ था। पूरी की पूरी ट्रेन पुल से कोशी नदी में जा गिरी। हजारों लोग मरे थे। महिलाएं बच्चे सब उफनाई कोशी की धार में बह गए थे। कोशी की धार ऐसी कि उसमें गिरे डिब्बे जब बाहर निकाले गए तो वे स्क्रू की तरह घूमे हुए पाए गए थे। हादसे में जो लोग तैर कर जान बचा सकते थे, वे भी नहीं बच पाए। तैर कर किनारे पहुंचने पर मधेपुरा के लोग उन्हें खुरपियों और कुदाल से काट कर मार डालते और उनकी घड़ियां, पैसे और जेवर वगैरह लूट लेते। हैवानियत का नंगा बर्बर दृश्य अब भी लोगों की रूह कंपा देता है। जब पुलिस ने मधेपुरा सहरसा के गांवों में छापामारी की तो घरों में घड़े भर-भर के घड़ियां बरामद की गई थीं। सोने जेवरात और अन्य सामान की तो पूछिए मत। यानी जितनी घड़ियां उतनी हत्याएं की थीं लोगों ने। गांवों में चादरों पर घड़ियां फैला कर सुखाई जाती हुई बरामद की गई थीं। आज वह पूरा इलाका बाढ़ से लबालब है। वही कोशी है और वही उसकी धार है। बात अलग धरा की है लेकिन आधार की है। निराधार नहीं। बिहार में फैली सड़ांध हमारे ही व्यक्तित्वों और कृतित्वों का प्रत्यावर्तन है। बिहार को गर्त में धकेलने वाले नेता भी बिहार के लोगों का ही 'रिफ्लेक्शन’ हैं। सामाजिक न्याय विद्रूप हुआ तो प्राकृतिक न्याय असंतुलित हो गया। प्रतीक्षा के बाद भी बारिश नहीं, अनिच्छा के बावजूद बाढ़। स्खलित सियासत का प्रतिबिम्ब प्राकृतिक-चर्या पर आप साफ-साफ देखिए।

लालू यादव अब इस बात पर कलह कर रहे हैं कि बाढ़ प्रभावित लोग भाग कर राजधानी पटना पहुंचें। लालू इस प्राकृतिक आपदा के समय भी अराजकता भरी सियासत का विस्तार करने का कुचक्र रच रहे हैं। बाढ़ से आक्रांत लोग राजधानी के लोगों को घरों में सुख से रहता हुआ नहीं देख पाएंगे। बिहार के नेता बिहार के लोगों को गृह युद्ध की तरफ या सामूहिक आत्महत्या की तरफ धकेल रहे हैं। परस्पर हत्या या आत्महत्या का एक खौफनाक दौर शुरू होने का अंदेशा गहराता जा रहा है। नेताओं की साजिश इसी बात की है। गिद्धों का भोजन इसी सामूहिक आत्महत्या से चलने वाला है। कफन की दुकानें इसी सामूहिक खुदकुशियों से चल निकलने वाली हैं। इस खौफनाक दौर को हम समय रहते रोक लें, या पक्के बिहारी बने रहें और भुनभुनाते रहें...

हक अच्छा पर उसके लिए कोई और मरे तो और अच्छा
तुम भी कोई मंसूर हो जो सूली पे चढ़ो... खामोश रहो
आंखें मूंद किनारे बैठो, मन के रखो बंद किवाड़
इंशा जी लो धागा ले लो, लब सी लो, खामोश रहो...

1 comment:

MANVINDER BHIMBER said...

बहुत अच्छा लिखा है....जानकारी भी है .....क्रम जारी रखें