Thursday, May 1, 2008

यार बोर हो गये।

गर्मियों के साथ छुट्टियों का मौसम भी शुरू हो जाता है। इस मौसम में तरह-तरह की बीमारियां फैलती हैं। इसमें एक बीमारी का नाम है, यार बोर हो गये।

यार बोर हो गये मल्टीपलेक्स वाले सिनेमा घरों में देखा जा सकता है। यह बस से ले कर रेल रिजर्वेशन की कतार में खड़ा हुआ पाया जाता है। अगर अभी भी किताब पढ़ते हों तो उसमें पढ़ा जा सकता है यार बोर हो गये।

इसे आप कपड़ों की शक्ल में पहन भी सकते हैं। पसीने के रूप में बहा सकते हैं। पांचवीं पास हैं तो जवाब बना सकते हैं। सांसद हैं तो प्रश्ननुमा भाषण दे सकते हैं। प्रधानमंत्री हैं तो मुनाफाखोरी के खिलाफ अपनी राय दे सकते हैं। इसे आप महंगाई बना कर खूब खाते हुए अनाज संकट पर कह सकते हैं कि यार बोर हो गये।

बोर होने की वजहों का शास्त्रीय सांस्कृतिक सर्वेक्षण के बाद इस नतीजे पर पहुंचा गया है कि इसका संबंध किसी उम्र से नहीं है। सामाजिक–आर्थिक–राजनीतिक सर्वेक्षण इस लिए नहीं किया गया कि उसमें बोर तत्व सनातन काल से शामिल है।

अब आप चाहें तो इसमें आपके घर में जमा हुआ टेलीविजन सेट के कार्यक्रमों को भी जोड़ लीजिए। आप जहां जाएंगे, हमें पाएंगे की शैली में इसे भौंकते हुए पाएंगे यार बोर हो गये।

अलग-अलग सर्वेक्षणकर्ताओं की यह राय जरूर है कि इसका संबंध दांपत्य जीवन से अवश्य है। इसे सर्वेक्षणकर्ताओं ने अनुभव किया है। पर प्रश्न के रूप में पति–पत्नी से पूछ नहीं पाए हैं। इसलिए इसे प्रमाणित नहीं माना जा सकता। फिर भी इस पर अनेक प्रकार के परीक्षण हुए हैं। उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसी पति में या किसी पत्नी में यह साहस नहीं होता कि एक दूसरे से, जरा प्यार से भी कह सकें कि यार बोर हो गये।

दरअसल सर्वेक्षणकर्ताओं ने यह भी पाया कि पतिगण पत्नियों से और पत्नीगण पतियों से सबसे ज्यादा बोर होते हैं। पर कहते नहीं हैं। कहने से बोरियत तो मिट जाती है। लेकिन दांपत्य जीवन का आनंद भी नष्ट हो जाता है।

ऐसी स्थिति में विभिन्न माध्यमों से पड़ोसियों को बोर कर परम आनंद को प्राप्त करते हैं। पड़ोसी धर्म को निभाने वाले अपने यार दोस्तों से जब अपने पड़ोसियों के बारे में बातचीत करते हैं तो उसकी समाप्ति इसी बात पर होती है कि हम अपने पड़ोसी से यार बोर हो गये।

सर्वेक्षणकर्ताओं ने यह भी पाया कि बोरियत को जन्म देने वाले कारणों में हमारे शिक्षण संस्थान भी हैं। अब आचार्य विष्णु शर्मा के पंचतंत्र का काल तो है नहीं कि बोर हुए कुमारों को रसमय कहानियों से शिक्षा दी जाए। अगर रसमय कहानियां बची खुची होती तो उन पर एक सीरियल या फिल्म न बन जाती।

अब तक पाठशाला से ले कर विश्वाविद्यालय हैं। कुछ लोग ऐसे पाठशालाओं को बोरालय भी कहते हैं। पर किसमें हिम्मत है जो कहे कि यार बोर हो गये।

इसे पढ़ कर जोर से कहें यार बोर हो गये!

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