अब चिंता की कोई बात नहीं है। फोटू कमिटी के सामने महंगाई का विरोध करने वालों को जान लेना चाहिए कि अब महंगाई भारत की समस्या नहीं रही। चूंकि अब यह विश्व की समस्या है, इसलिए भारत में इसका हौव्वा भी नहीं खड़ा करना चाहिए। हमारे प्रधानमंत्री ने कहा भी कि इसका हौव्वा खड़ा करने से मुनाफाखोरों–कालाबाजारियों को मदद मिलती है।
बाजार के युग में कहां सरकार कोई कार्रवाई कर सकती है इन पर। फिर अब तो यह आहार संकट भ्रष्टाचार के समान विश्वच्यापी हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने इसे विश्व सकंट मान लिया है।
हमारा अपना बस तो हमारी पंचायत पर तो चलता है नहीं, फिर विश्व को हम क्या राह दिखाएं। जबकि ऐसे मौकों पर दुनिया को रास्ता दिखाना हमारा जिम्मेदारी है। विश्व के सबसे बड़े मॉल में अमेरिका में भी बड़ी उलझन है कि वह विश्व को कौन सी राह दिखाए। अब अमेरिकी डेमोक्रेट एक अश्वेत और औरत में तो फैसला कर नहीं पा रहे हैं। फिर आहार संकट पर कैसे फैसला कर पाएंगे।
पर यही क्या कम बड़ी बात है कि दुनिया भर में खाने पीने की चीजें 40 फीसदी महंगी हो गईं हैं। हमारा देश भी दुनिया में ही है। हम भी संसार के साथ कदम से कदम मिला कर चल रहे हैं।
हम हिंदुस्तानी बड़े ही स्वार्थी और अवसरवादी लोग हैं। हमें हर चीज मुफ्त में चाहिए। यह नहीं समझते कि सामान की बढ़ी हुई कीमत आपके स्टैंडर्ड ऑफ लीविंग को भी तो दर्शाती हैं। अगर इस नजरिए से देखेंगे तो महंगाई आपको तरक्की और प्रगति की पहचान भी दिखेगी।
हमेशा याद रखिए कि संसार को वसुधैव कुटुंबकम का संदेश हमने दिया है। ऐसी हालत में हमारे प्रधानमंत्री की यह भी जिम्मेदारी हो जाती है कि विश्व को आहार संकट से उबारें। भारत को विश्व का नेतृत्व करना है। यह कब तक चलेगा कि विश्व भारत का नेतृत्व करे। पहले विश्व अपना आहार संकट दूर करे। नहीं कर सकता तो हमें विश्व नेता मान ले।
हमारे कृषि मंत्री ने मान लिया है कि इस वर्ष गेहूं की रिकॉर्ड फसल हुई है। सरकार ने भी जम कर गेहूं की खरीद की है। अब आटा सस्ता नहीं हो रहा है तो आप जानते हैं कि पूरी दुनिया खाद्य संकट का सामना कर रही है।
हमारे सेवा कर वित्त मंत्री ने जो कहा वह तो चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र (यहां यह जानकारी देना जरूरी है कि हम पांचवीं पास नहीं हैं। इसलिए न तो यह जानते हैं कि चाणक्य कौन हैं, न यह कि यह अर्थशास्त्र क्या होता है) में भी ऐसा नहीं सोचा होगा जो हमारे वित्त मंत्री ने सोचा कि सरकार कीमतें रोकने के लिए अपनी आमदनी की भी कुर्बानी कर सकती है।
इसे आप सरकारी बोल वचन भर मत समझिए। अब तक आप हर सरकारी बात को सिर्फ बतक ही समझते आए हैं। इस बार सरकार जो कहा सो किया के मूड में है। इसका कारण भी है। अब सरकार को विश्व को राह दिखानी है। बस गर्मी गुजर जाने दीजिए। यहां गर्मी का मतलब ग्लोबल वार्मिंग वाली गर्मी नहीं है। यह कर्नाटक विधान सभा चुनाव की गर्मी है।
इसके बाद ही हम भारत के लोग नेतृत्व करेंगे वसुधैव आहार संकटम् का!
Thursday, May 1, 2008
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