मजदूरों की अपनी समस्याएं हो सकती हैं लेकिन किसी भी सूरत में किसी की भी हत्या को जायज नहीं ठहराया जा सकता
कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 24, 2008
दुनिया की सर्वाधिक तेजी से उभर रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक है भारत। बीते वर्षो के दौरान उद्योगों का तेली से फैलाव हुआ है। लेकिन औद्योगीकरण की चुनौतियों और जिम्मेदारी से अनजान देश अभी तक विकास का फलसफा नहीं सीख सका है और इसका खामियाजा भुगत रहा है पूरा देश। इस सिलसिले की ताजा कड़ी है ग्रेटर नोएडा स्थित कंपनी ग्रेजियोनी ट्रांसमिजियोनी की दुर्घटना।
क्या है पूरा मामला
गत सोमवार को 360 करोड़ रुपये की इटली की सहयोगी कंपनी ग्रेजियोनी ट्रांसमिजियोनी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) और इंडिया हेड ललित किशोर चौधरी की हत्या बर्खास्त कर्मचारियों द्वारा कर दी गई।
लगभग 125 बर्खास्त कर्मचारी अपने हाथ में लोहे की छड़ लेकर घुसे और कंपनी के अंदर तोड़ फोड़ मचाने लगे। जब ललित ने उन लोगों को शांत होने के लिए कहा, तो वे उन पर सरियों से वार करने लगे। घायल चौधरी को कैलाश अस्पताल ले जाया गया, जहां उनकी मौत हो गई।
किस तरह के कदम उठाए जा सकते थे
चौधरी जिस कंपनी में थे, वह 360 करोड़ रुपये की कंपनी है और अगर ऐसी कंपनियों में ये वारदात हो सकती है, तो आप अन्य उद्योगों की सुरक्षा व्यवस्था का अंदाजा लगा सकते हैं। व्यापारियों का मानना है कि उद्योगों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों की सुरक्षा के लिए सीआईएसएफ के जवानों की तैनाती की
जानी चाहिए।
नोएडा की प्रमुख औद्योगिक इकाइयां
नोएडा में लगभग 8956 औद्योगिक इकाइयां काम कर रही है, जिसमें फेडर्स लॉयड, एचसीएल-एचपी, इंडो कॉप, टी-सीरिज, बीपीएल सानयो, पैनासोनिक, सैमसंग, फीनिक्स, एसजीएस-थॉमसन, टाटा यूनिसिस, टीसीएस, मॉजर बेयर, एवरेडी आदि प्रमुख हैं।
इतनी बड़ी बड़ी कंपनियों का हब होने के बावजूद नोएडा में सुरक्षा व्यवस्था नदारद है। इस घटना के बाद इस औद्योगिक शहर में काफी संशय का माहौल है। सभी कंपनियां असुरक्षा और सरकारी उदासीनता को लेकर पसोपेश में है।
नोएडा में बड़ी संख्या में औद्योगिक प्रतिष्ठान हैं, इसके बावजूद सरकार उचित सुरक्षा व्यवस्था मुहैया नहीं कराती है। ये कंपनियां या तो निजी सुरक्षा एजेंसियों का सहारा लेती है या फिर राम भरोसे ही इनका काम चलता है।
सीईओ की हत्या ने औद्योगिक महकमे में सनसनी फैला दी है। वहां के कुछ व्यापारियों का कहना है कि पुलिस तो नोएडा में शांति व्यवस्था बनाए रखने में बिल्कुल नाकाम रही है। सीईओ की हत्या से नोएडा में काफी दहशत का माहौल है।
क्या हो सकती है कार्रवाई
सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता रोहित पांडेय ने बताया कि गिरफ्तार लोगों पर हत्या का आरोप तय किए जाएंगे और धारा 302 के तहत कार्रवाई की जाएगी।
इस घटना में षडयंत्र का मामला बनेगा और उन पर धारा 123 के तहत आरोप तय किए जाएंगे। जिन लोगों के नाम एफआईआर में होंगे, उनकी सजा का निर्णय मुकदमे के आधार पर किया जाएगा।
Friday, September 26, 2008
माली जो बाग उजाड़े, उसे...
कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 25, 2008
नाम बड़े और दर्शन छोटे...नोएडा और ग्रेटर नोएडा यानी गौतमबुध्दनगर। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में पड़ने वाला यह जिला औद्योगिक मानचित्र पर अलग ही रुतबा रखता है।
मगर अफसोस, शायद नादान राज्य सरकारें इस रुतबे की देश और सूबे के आर्थिक विकास के लिए अहमियत का अंदाजा नहीं लगा पाईं।
नहीं तो वे देसी-विदेशी कंपनियों की भारी-भरकम फौज वाले इस क्षेत्र के लिए चिड़िया के चुग्गे सरीखी सुरक्षा व्यवस्था करके इसे यूं राम भरोसे न छोड़ देतीं।
यकीन नहीं आता तो जरा मुलाहिजा फरमाइए कि यहां कुल कितने उद्योग-धंधे और आबादी है और इनकी सुरक्षा के लिए क्या सरकारी इंतजामात हैं।
अगर सिर्फ ग्रेटर नोएडा की बात की जाए, जहां एक सीईओ की खुलेआम और बर्बरतापूर्ण ढंग से हत्या की गई तो वहां 20 से अधिक बड़ी कंपनियां हैं। इनमें यामहा एस्कॉट्र्स, एशियन पेंट्स, एलजी, न्यू हॉलेंड, मोजर बेयर, एसटी, माइक्रोसॉफ्ट जैसी महारथी कंपनियां भी शामिल हैं।
इसके अलावा यहां 500 छोटी-बड़ी कंपनियां हैं। जबकि नोएडा में लगभग छह हजार औद्योगिक इकाइयां हैं, जिनमें करीब 250 जानी-मानी कंपनियों की इकाइयां हैं।
और अब जरा गौर फरमाइए , समूचे जिले की सुरक्षा व्यवस्था पर। जिले की पांच लाख की आबादी के लिए और 200 किलोमीटर परिक्षेत्र के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने कुल 2400 पुलिसकर्मियों को तैनात किया है।
अब कोई यह सरकार से यह पूछे कि आबादी और उद्योग धंधों के अनुपात में ये मुट्ठी भर पुलिसकर्मी भला हजारों औद्योगिक इकाइयों में होने वाले श्रमिक असंतोष से कैसे निबटेंगे, जबकि उनके पास इतने बड़े इलाके में होने वाले अन्य अपराधों के रोकथाम और कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी भी है।
यही वजह है कि इन इकाइयों में आए दिन होने वाली मजदूर हड़ताल कई बार खूनी रंग भी अख्तियार कर लेती है।
अगर इटली की कंपनी की ताजा शर्मनाक घटना को मजदूरों का अकस्मात उपजा असंतोष मान भी लिया जाए तो कुछ अरसा पहले हुए देवू मोटर्स कार्यालय पर कर्मचारियों के हमले को क्या माना जाए, जिसके चलते यहां कंपनी को अपनी इकाई बंद करनी पड़ी थी।
इस घटना में भी 125 कर्मचारी और 10 पुलिसकर्मी घायल हो गए थे। इसी तरह 2004 में भी जेपी ग्रीन के मजदूरों ने नोएडा स्थित कार्यालय पर धावा बोला था। इसमें भी एक आदमी की मौत हो गई थी।
यही नहीं, अगस्त 2008 में सरकार द्वारा अधिग्रहित जमीन को लेकर किसानों ने जो तीव्र विरोध-प्रदर्शन किया था, उसमें भी 4 लोग मारे गए थे और 50 लोग घायल हुए थे।
उद्यमियों की मानें तो पिछले पांच साल में 300 से भी कम इकाइयां यहां लगी है। जबकि लगभग दो हजार से अधिक कंपनियां यहां से पलायन कर चुकी हैं।
भारतीय उद्योग संघ केगौतमबुद्ध नगर चैप्टर के अध्यक्ष जितेंद्र पारिख ने बताया कि कई कंपनियों ने काफी उम्मीदों के साथ यहां उद्योग लगाना शुरू किया था, लेकिन भविष्य सुरक्षित नजर नही आ रहा है।
नाम बड़े और दर्शन छोटे...नोएडा और ग्रेटर नोएडा यानी गौतमबुध्दनगर। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में पड़ने वाला यह जिला औद्योगिक मानचित्र पर अलग ही रुतबा रखता है।
मगर अफसोस, शायद नादान राज्य सरकारें इस रुतबे की देश और सूबे के आर्थिक विकास के लिए अहमियत का अंदाजा नहीं लगा पाईं।
नहीं तो वे देसी-विदेशी कंपनियों की भारी-भरकम फौज वाले इस क्षेत्र के लिए चिड़िया के चुग्गे सरीखी सुरक्षा व्यवस्था करके इसे यूं राम भरोसे न छोड़ देतीं।
यकीन नहीं आता तो जरा मुलाहिजा फरमाइए कि यहां कुल कितने उद्योग-धंधे और आबादी है और इनकी सुरक्षा के लिए क्या सरकारी इंतजामात हैं।
अगर सिर्फ ग्रेटर नोएडा की बात की जाए, जहां एक सीईओ की खुलेआम और बर्बरतापूर्ण ढंग से हत्या की गई तो वहां 20 से अधिक बड़ी कंपनियां हैं। इनमें यामहा एस्कॉट्र्स, एशियन पेंट्स, एलजी, न्यू हॉलेंड, मोजर बेयर, एसटी, माइक्रोसॉफ्ट जैसी महारथी कंपनियां भी शामिल हैं।
इसके अलावा यहां 500 छोटी-बड़ी कंपनियां हैं। जबकि नोएडा में लगभग छह हजार औद्योगिक इकाइयां हैं, जिनमें करीब 250 जानी-मानी कंपनियों की इकाइयां हैं।
और अब जरा गौर फरमाइए , समूचे जिले की सुरक्षा व्यवस्था पर। जिले की पांच लाख की आबादी के लिए और 200 किलोमीटर परिक्षेत्र के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने कुल 2400 पुलिसकर्मियों को तैनात किया है।
अब कोई यह सरकार से यह पूछे कि आबादी और उद्योग धंधों के अनुपात में ये मुट्ठी भर पुलिसकर्मी भला हजारों औद्योगिक इकाइयों में होने वाले श्रमिक असंतोष से कैसे निबटेंगे, जबकि उनके पास इतने बड़े इलाके में होने वाले अन्य अपराधों के रोकथाम और कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी भी है।
यही वजह है कि इन इकाइयों में आए दिन होने वाली मजदूर हड़ताल कई बार खूनी रंग भी अख्तियार कर लेती है।
अगर इटली की कंपनी की ताजा शर्मनाक घटना को मजदूरों का अकस्मात उपजा असंतोष मान भी लिया जाए तो कुछ अरसा पहले हुए देवू मोटर्स कार्यालय पर कर्मचारियों के हमले को क्या माना जाए, जिसके चलते यहां कंपनी को अपनी इकाई बंद करनी पड़ी थी।
इस घटना में भी 125 कर्मचारी और 10 पुलिसकर्मी घायल हो गए थे। इसी तरह 2004 में भी जेपी ग्रीन के मजदूरों ने नोएडा स्थित कार्यालय पर धावा बोला था। इसमें भी एक आदमी की मौत हो गई थी।
यही नहीं, अगस्त 2008 में सरकार द्वारा अधिग्रहित जमीन को लेकर किसानों ने जो तीव्र विरोध-प्रदर्शन किया था, उसमें भी 4 लोग मारे गए थे और 50 लोग घायल हुए थे।
उद्यमियों की मानें तो पिछले पांच साल में 300 से भी कम इकाइयां यहां लगी है। जबकि लगभग दो हजार से अधिक कंपनियां यहां से पलायन कर चुकी हैं।
भारतीय उद्योग संघ केगौतमबुद्ध नगर चैप्टर के अध्यक्ष जितेंद्र पारिख ने बताया कि कई कंपनियों ने काफी उम्मीदों के साथ यहां उद्योग लगाना शुरू किया था, लेकिन भविष्य सुरक्षित नजर नही आ रहा है।
Monday, September 22, 2008
केंद्र बेचेगा 'महंगा' गेहूं, पर खरीदेगा कौन
कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 21, 2008
खाद्यान्न प्रबंधन पर सरकार की मुश्किलें बढ़ गई है। सरकार ने पहले तो बाजार की स्थिति का बिना अध्ययन किए 1000 रुपये प्रति क्विंटल गेहूं की खरीद की।
अब उसे खुले बाजारों में सस्ती दर पर बेचने की योजना बनाई जा रही है। लेकिन आलम यह है कि देश के लगभग सभी राज्यों में इस समय गेहूं निर्धारित समर्थन मूल्य से भी कम पर खुले बाजार में बिक रहा है। ऐसे में अंदाजा लग सकता है कि इस महंगे सरकारी गेहूं को खरीदेगा कौन? वैसे खाद्य मंत्रालय ने घाटा सहकर भी इस गेहूं को बेचने का निर्णय लिया है।
उसने इस गेहूं की अलग अलग राज्यों में भिन्न भिन्न कीमतें घोषित की हैं।उत्तर प्रदेश में अलीगढ़, कानपुर, फैजाबाद की मंडियों में गेहूं का भाव 1055 रुपये प्रति क्विंटल है।
पंजाब की खन्ना मंडी में गेहूं 970 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बिक रहा है जबकि यहां के लिए केंद्र की दर बाजार भाव से ज्यादा यानी 1021 रुपये प्रति क्विंटल है। गुजरात की राजकोट मंडी में गेहूं की कीमत औसतन 1000 रुपये प्रति क्विंटल है और केंद्र ने यहां गेहूं 1088 रुपये प्रति क्विंटल बेचने का निर्णय लिया है।
दक्षिण भारत में कर्नाटक की नारकुंडा मंडी में गेहूं का भाव 1140 रुपये प्रति क्विंटल है और केंद्र ने यहां के लिए 1160 रुपये का भाव निर्धारित किया है। मध्यप्रदेश की पथरिया मंडी में गेहूं की कीमत 975 रुपये से 1000 रुपये प्रति क्विंटल के बीच है, जबकि केंद्र ने यहां के लिए 1075 रुपये का भाव निर्धारित किया है।
जाहिर है कि राज्यों की मंडियों में केंद्र द्वारा निर्धारित भाव से कम पर गेहूं बिक रहा है।
केंद्र ने अप्रैल-जून में 1000 रुपये प्रति क्विंटल के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गेहूं खरीदा था। उस खरीद भाव में आढ़ती कमीशन, लदाई, ढुलाई और भंडारण का भी खर्च जोड़ने पर यह कीमत लगभग 1250 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गई थी।
लेकिन जब राज्यों की मंडियों में इससे कम दाम पर गेहूं बिक रहा था, तो केंद्र की यह मजबूरी हो गई कि वह भी कम दामों पर ही गेहूं बेचे। वैसे भी, खुले बाजार में गेहूं पर्याप्त मात्रा में है, इसलिए भी केंद्र पर कम दाम पर गेहूं बेचने का दबाव है।
खाद्य और कृषि मंत्री शरद पवार ने जुलाई में 60 लाख टन गेहूं खुले बाजारों में बेचने का निर्णय लिया था, जिसे कैबिनेट ने भी मंजूरी दे दी थी। लेकिन राज्यों की मंडियों में कम दाम पर गेहूं बिकने से केंद्र की मुसीबत बढ़ गई और उसे कम दामों पर इन मंडियों में गेहूं बेचने को मजबूर होना पड़ा।
सदर बाजार ग्रेन मर्चेंट एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष ओमप्रकाश जैन ने बताया कि सरकार जो कदम उठा रही है, वह सिर्फ राजनीतिक चोंचले हैं। दरअसल सरकार के इस कदम से किसानों को तात्कालिक लाभ पहुंचेगा, लेकिन इसे ज्यादा दिनों तक जारी नही रखा जा सकता है।
खाद्यान्न प्रबंधन पर सरकार की मुश्किलें बढ़ गई है। सरकार ने पहले तो बाजार की स्थिति का बिना अध्ययन किए 1000 रुपये प्रति क्विंटल गेहूं की खरीद की।
अब उसे खुले बाजारों में सस्ती दर पर बेचने की योजना बनाई जा रही है। लेकिन आलम यह है कि देश के लगभग सभी राज्यों में इस समय गेहूं निर्धारित समर्थन मूल्य से भी कम पर खुले बाजार में बिक रहा है। ऐसे में अंदाजा लग सकता है कि इस महंगे सरकारी गेहूं को खरीदेगा कौन? वैसे खाद्य मंत्रालय ने घाटा सहकर भी इस गेहूं को बेचने का निर्णय लिया है।
उसने इस गेहूं की अलग अलग राज्यों में भिन्न भिन्न कीमतें घोषित की हैं।उत्तर प्रदेश में अलीगढ़, कानपुर, फैजाबाद की मंडियों में गेहूं का भाव 1055 रुपये प्रति क्विंटल है।
पंजाब की खन्ना मंडी में गेहूं 970 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बिक रहा है जबकि यहां के लिए केंद्र की दर बाजार भाव से ज्यादा यानी 1021 रुपये प्रति क्विंटल है। गुजरात की राजकोट मंडी में गेहूं की कीमत औसतन 1000 रुपये प्रति क्विंटल है और केंद्र ने यहां गेहूं 1088 रुपये प्रति क्विंटल बेचने का निर्णय लिया है।
दक्षिण भारत में कर्नाटक की नारकुंडा मंडी में गेहूं का भाव 1140 रुपये प्रति क्विंटल है और केंद्र ने यहां के लिए 1160 रुपये का भाव निर्धारित किया है। मध्यप्रदेश की पथरिया मंडी में गेहूं की कीमत 975 रुपये से 1000 रुपये प्रति क्विंटल के बीच है, जबकि केंद्र ने यहां के लिए 1075 रुपये का भाव निर्धारित किया है।
जाहिर है कि राज्यों की मंडियों में केंद्र द्वारा निर्धारित भाव से कम पर गेहूं बिक रहा है।
केंद्र ने अप्रैल-जून में 1000 रुपये प्रति क्विंटल के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गेहूं खरीदा था। उस खरीद भाव में आढ़ती कमीशन, लदाई, ढुलाई और भंडारण का भी खर्च जोड़ने पर यह कीमत लगभग 1250 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गई थी।
लेकिन जब राज्यों की मंडियों में इससे कम दाम पर गेहूं बिक रहा था, तो केंद्र की यह मजबूरी हो गई कि वह भी कम दामों पर ही गेहूं बेचे। वैसे भी, खुले बाजार में गेहूं पर्याप्त मात्रा में है, इसलिए भी केंद्र पर कम दाम पर गेहूं बेचने का दबाव है।
खाद्य और कृषि मंत्री शरद पवार ने जुलाई में 60 लाख टन गेहूं खुले बाजारों में बेचने का निर्णय लिया था, जिसे कैबिनेट ने भी मंजूरी दे दी थी। लेकिन राज्यों की मंडियों में कम दाम पर गेहूं बिकने से केंद्र की मुसीबत बढ़ गई और उसे कम दामों पर इन मंडियों में गेहूं बेचने को मजबूर होना पड़ा।
सदर बाजार ग्रेन मर्चेंट एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष ओमप्रकाश जैन ने बताया कि सरकार जो कदम उठा रही है, वह सिर्फ राजनीतिक चोंचले हैं। दरअसल सरकार के इस कदम से किसानों को तात्कालिक लाभ पहुंचेगा, लेकिन इसे ज्यादा दिनों तक जारी नही रखा जा सकता है।
Friday, September 19, 2008
पेशेवर कर्मचारी ही बचा पाएंगे रिटेल की चमक
कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 17, 2008
रिटेल क्षेत्र में प्रबंधन के हर स्तर पर तंगी का माहौल है। वैसे तो यह क्षेत्र अपना विस्तार काफी तेजी से कर रहा है, लेकिन निचले स्तर से लेकर उच्च स्तर पर दक्ष कर्मचारियों की भारी कमी है।
कॉलेज और अन्य प्रशिक्षण संस्थानों से भी प्रशिक्षुओं की काफी कम संख्या रिटेल क्षेत्र में आ रहे हैं। इसके पीछे एक वजह तो यह बताई जाती है कि इन संस्थानों में जो पाठयक्रम चलाए जाते हैं, वह रिटेल कंपनियों की जरूरतों के अनुसार नही होते हैं। इसी तरह की समस्या बीमा और दूरसंचार क्षेत्रों में भी देखने को मिल रही है।
रिटेल क्षेत्र में जो दूसरी समस्या कर्मचारियों को लेकर आ रही है, वह यह है कि मौजूदा कर्मचारियों में भी अनुभवों की कमी देखने को मिल रही है। वे रिटेल क्षेत्र की जरूरतों से अच्छी तरह से वाकिफ नही होते हैं और इसलिए पूरी दक्षता के साथ काम नही कर पाते हैं।
बहुत सारी कंपनियों ने तो अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने के लिए अपने स्तर से ही प्रयास करना शुरू कर दिया है। ये कंपनियां इस तरह के कदम इसलिए उठा रही है, क्योंकि आज दक्ष कर्मचारियों और मानव संसाधन का होना काफी जरूरी होता है।
पेंटालून रिटेल के एचआर प्रमुख संजय जोग ने बिजनेस स्टैंडर्ड को टेलीफोन पर बताया कि रिटेल क्षेत्र में रोजगार के काफी अवसर उपलब्ध हैं। इस बाबत अब संस्थानों में भी जागरूकता आई है और वे इस क्षेत्र के अनुरूप छात्रों को तैयार भी कर रहे हैं। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अभी इस क्षेत्र के लिए दक्ष प्रोफेशनल की कमी है।
यह बात भी तय है कि अगर आपको आज के प्रोफेशनल जमाने में टिकना और बेहतर प्रदर्शन करना है, तो आपके पास कुशल और स्मार्ट मानव संसाधन का रहना बहुत जरूरी है। आज रिटेल क्षेत्र की हर बड़ी कंपनियां अपने एचआर (मानव संसाधन) नीतियों में परिवर्तन ला रही है और दक्षता प्रशिक्षण के लिए अपने कुल बजट का 2 से 5 प्रतिशत निवेश कर रही है।
फोर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट, नई दिल्ली, की निदेशक डॉ. सीमा संघी कहती हैं कि आजकल काफी छात्र रिटेल मैनेजमेंट की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। हालांकि रिटेल क्षेत्र में आईटी और बीपीओ क्षेत्रों की तरह काफी मात्रा में कमाने के अवसर सीमित होते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि इन क्षेत्रों के व्यापार की प्रवृति बिक्री और लाभ पर आधारित होती है। इस तरह इन क्षेत्रों के लिए दक्ष मानव संसाधन होना आज की जरूरत हो गई है।
इसलिए इन कंपनियों को इस तरह के कार्य मानक बनाने होंगे ताकि कर्मचारी अपने को इन क्षेत्रों से जोड़ पाएं और विकास में भागीदार बन सके। पांच वर्षों में संगठित रिटेल क्षेत्र में 15 से 20 लाख रोजगार सृजन होने की संभावना है। इसी अवधि में रिटेल क्षेत्र में 40 फीसदी विकास की भी उम्मीद है। इसलिए रिटेल क्षेत्र के लिए निचले स्तर से लेकर प्रबंधन के ऊपरी स्तर तक दक्ष प्रोफेशनल का चयन जरूरी है।
रिटेल क्षेत्र में प्रबंधन के हर स्तर पर तंगी का माहौल है। वैसे तो यह क्षेत्र अपना विस्तार काफी तेजी से कर रहा है, लेकिन निचले स्तर से लेकर उच्च स्तर पर दक्ष कर्मचारियों की भारी कमी है।
कॉलेज और अन्य प्रशिक्षण संस्थानों से भी प्रशिक्षुओं की काफी कम संख्या रिटेल क्षेत्र में आ रहे हैं। इसके पीछे एक वजह तो यह बताई जाती है कि इन संस्थानों में जो पाठयक्रम चलाए जाते हैं, वह रिटेल कंपनियों की जरूरतों के अनुसार नही होते हैं। इसी तरह की समस्या बीमा और दूरसंचार क्षेत्रों में भी देखने को मिल रही है।
रिटेल क्षेत्र में जो दूसरी समस्या कर्मचारियों को लेकर आ रही है, वह यह है कि मौजूदा कर्मचारियों में भी अनुभवों की कमी देखने को मिल रही है। वे रिटेल क्षेत्र की जरूरतों से अच्छी तरह से वाकिफ नही होते हैं और इसलिए पूरी दक्षता के साथ काम नही कर पाते हैं।
बहुत सारी कंपनियों ने तो अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने के लिए अपने स्तर से ही प्रयास करना शुरू कर दिया है। ये कंपनियां इस तरह के कदम इसलिए उठा रही है, क्योंकि आज दक्ष कर्मचारियों और मानव संसाधन का होना काफी जरूरी होता है।
पेंटालून रिटेल के एचआर प्रमुख संजय जोग ने बिजनेस स्टैंडर्ड को टेलीफोन पर बताया कि रिटेल क्षेत्र में रोजगार के काफी अवसर उपलब्ध हैं। इस बाबत अब संस्थानों में भी जागरूकता आई है और वे इस क्षेत्र के अनुरूप छात्रों को तैयार भी कर रहे हैं। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अभी इस क्षेत्र के लिए दक्ष प्रोफेशनल की कमी है।
यह बात भी तय है कि अगर आपको आज के प्रोफेशनल जमाने में टिकना और बेहतर प्रदर्शन करना है, तो आपके पास कुशल और स्मार्ट मानव संसाधन का रहना बहुत जरूरी है। आज रिटेल क्षेत्र की हर बड़ी कंपनियां अपने एचआर (मानव संसाधन) नीतियों में परिवर्तन ला रही है और दक्षता प्रशिक्षण के लिए अपने कुल बजट का 2 से 5 प्रतिशत निवेश कर रही है।
फोर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट, नई दिल्ली, की निदेशक डॉ. सीमा संघी कहती हैं कि आजकल काफी छात्र रिटेल मैनेजमेंट की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। हालांकि रिटेल क्षेत्र में आईटी और बीपीओ क्षेत्रों की तरह काफी मात्रा में कमाने के अवसर सीमित होते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि इन क्षेत्रों के व्यापार की प्रवृति बिक्री और लाभ पर आधारित होती है। इस तरह इन क्षेत्रों के लिए दक्ष मानव संसाधन होना आज की जरूरत हो गई है।
इसलिए इन कंपनियों को इस तरह के कार्य मानक बनाने होंगे ताकि कर्मचारी अपने को इन क्षेत्रों से जोड़ पाएं और विकास में भागीदार बन सके। पांच वर्षों में संगठित रिटेल क्षेत्र में 15 से 20 लाख रोजगार सृजन होने की संभावना है। इसी अवधि में रिटेल क्षेत्र में 40 फीसदी विकास की भी उम्मीद है। इसलिए रिटेल क्षेत्र के लिए निचले स्तर से लेकर प्रबंधन के ऊपरी स्तर तक दक्ष प्रोफेशनल का चयन जरूरी है।
Wednesday, September 17, 2008
अंतरराष्ट्रीय तेल फर्मों को डाला चारा
कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 17, 2008
भारत सरकार देश के तेल और गैस क्षेत्र में बड़ी अंतरराष्ट्रीय तेल मार्केटिंग कंपनियों को निवेश करने के लिए आकर्षित करने की पूरी कोशिश कर रही है।
लेकिन इस दिशा में कोई बड़ा निवेश संभव नहीं हो पा रहा है। इसलिए देश के पेट्रोलियम क्षेत्र में खोज और उत्खनन के लिए मौजूद नई अन्वेषण लाइसेंसिंग नीति (नेल्प) में बदलाव की प्रक्रिया पर विचार किया जा रहा है।
भारत चाहता है कि एक्सॉन मोबिल, टोटाल, ब्रिटिश पेट्रोलियम जैसी विदेशी कंपनियां देश के तेल और गैस क्षेत्र में निवेश करें। सरकारी सूत्रों का कहना है कि नेल्प के सातवें दौर में हालांकि विदेशी कंपनियों ने काफी रुचि दिखाई है, लेकिन इसके बावजूद विदेशी कंपनियों का निवेश बहुत कम रहा है।
पेट्रोलियम मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार नियमों में बदलाव के कई कारण हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में अस्थिर तेल की कीमतें इसमें से एक है। इसलिए नेल्प के नियम इस प्रकार होने चाहिए कि इन तेल कंपनियों को बेहतर रिटर्न सुनिश्चित कराया जा सके।
सूत्रों का यह मानना है कि जब तक अंतरराष्ट्रीय तेल कंपनियां निवेश के लिए उत्सुक नहीं होगी, तब तक अपेक्षित परिणाम नजर नहीं आएगा। पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर ने भी विदेशी कंपनियों को आकर्षित करने की संभावनाओं का पता लगाने के लिए विक्रम मेहता की अध्यक्षता वाली एक समिति का गठन किया था।
भारत सरकार देश के तेल और गैस क्षेत्र में बड़ी अंतरराष्ट्रीय तेल मार्केटिंग कंपनियों को निवेश करने के लिए आकर्षित करने की पूरी कोशिश कर रही है।
लेकिन इस दिशा में कोई बड़ा निवेश संभव नहीं हो पा रहा है। इसलिए देश के पेट्रोलियम क्षेत्र में खोज और उत्खनन के लिए मौजूद नई अन्वेषण लाइसेंसिंग नीति (नेल्प) में बदलाव की प्रक्रिया पर विचार किया जा रहा है।
भारत चाहता है कि एक्सॉन मोबिल, टोटाल, ब्रिटिश पेट्रोलियम जैसी विदेशी कंपनियां देश के तेल और गैस क्षेत्र में निवेश करें। सरकारी सूत्रों का कहना है कि नेल्प के सातवें दौर में हालांकि विदेशी कंपनियों ने काफी रुचि दिखाई है, लेकिन इसके बावजूद विदेशी कंपनियों का निवेश बहुत कम रहा है।
पेट्रोलियम मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार नियमों में बदलाव के कई कारण हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में अस्थिर तेल की कीमतें इसमें से एक है। इसलिए नेल्प के नियम इस प्रकार होने चाहिए कि इन तेल कंपनियों को बेहतर रिटर्न सुनिश्चित कराया जा सके।
सूत्रों का यह मानना है कि जब तक अंतरराष्ट्रीय तेल कंपनियां निवेश के लिए उत्सुक नहीं होगी, तब तक अपेक्षित परिणाम नजर नहीं आएगा। पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर ने भी विदेशी कंपनियों को आकर्षित करने की संभावनाओं का पता लगाने के लिए विक्रम मेहता की अध्यक्षता वाली एक समिति का गठन किया था।
Tuesday, September 16, 2008
खुशहाली पर आतंकी नजर
कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 14, 2008
रविवार को दिल्ली के आईटीओ चौराहे पर लगा एक सरकारी विज्ञापन हर राहगीर को मुंह चिढ़ा रहा था। विज्ञापन में बड़े अक्षरों में लिखा है कि 'चारों तरफ जगमगा रही है दिल्ली।'
जी तो हमारा भी यही चाह रहा था कि लिख दें कि बम धमाकों से बेफिक्र रही दिल्ली। लेकिन हकीकत यह है कि लोग फिर से उठ खड़े तो हुए हैं, हिम्मत की भी र्कोई कमी नहीं है। चारो तरफ दूसरों की मदद का जोरदार जज्बा दिखा है, लेकिन शहर में हर शख्स डरा सहमा सा है।
दिल्ली के रीगल सिनेमा के पास रविवार दोपहर तक लोगों की आवाजाही काफी कम रही। अधिकतर दुकानें बंद थी। रीगल के बगल में श्रीलेदर्स का शोरूम खुला है। लेकिन इक्के दुक्के लोग खरीदारी के लिए दुकान में आ रहे हैं।
श्रीलेदर्स के कनॉट प्लेस के शोरूम के मैनेजर शांतनु ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि आम रविवार की तुलना में इस बार सिर्फ 10 फीसदी लोग खरीदारी के लिए आ रहे हैं। रीगल के बाहर पान-मसाला की रेहड़ी लगाने वाला शिव नारायण तिवारी की दुकान उस कूड़ेदान के बगल में है, जहां शनिवार को जिंदा बम मिला था।
उस वक्त के माहौल का जिक्र करते हुए वह बताता है, चारों तरफ लोगों का हूजूम उमड़ पड़ा था। सभी लोग सेंट्रल पार्क में मदद के लिए भागे जा रहे थे। यहां पर तो सारी दुकानें उस वक्त खाली करा दी गई थी और उस जिंदा बम को डिफ्यूज करने वाली मशीन यहां लगा दी गई थी।
जनपथ बाजार
रविवार को जनपथ बाजार पर भी सन्नाटा पसरा हुआ है। यहां पर आम रविवार को सैकड़ों दुकानें लगती है। कपड़े आदि के सामान रविवार को खरीदने बड़ी संख्या में लोग आते हैं। लेकिन इस रविवार को हालत बिल्कुल विपरीत है।
जनपथ बाजार में रेहड़ी लगाकर कपड़े बेचने वाला राजेश सिंह ने कहा कि नई दिल्ली नगरपालिका परिषद (एनडीएमसी) और दिल्ली पुलिस ने सतर्कता के तौर पर आज बाजार बंद रखने को कहा है। राजेश सिंह बताते हैं कि यहां पर दुकान का किराया 2500 से 3000 रुपये प्रति दिन है और रविवार को दुकान बंद रहने की वजह से व्यापारियों को औसतन 50 से 60 हजार का घाटा हो रहा है।
जनपथ बाजार के बाहर पुलिस बूथ पर काफी संख्या में पुलिस गश्त लगा रहे थे। पुलिस यह मानने को कतई तैयार नही हुए कि शनिवार के हादसे का लोगों पर कोई असर है। लेकिन पुलिस की यह बात तब खोखली साबित हुई, जब जनपथ बाजार के बाहर एक महिला आर के पुरम जाने के लिए ऑटो की तलाश कर रही थी और उसे ऑटो रिक्शा नजर नहीं आ रहा था।
करोल बाग और गफ्फार मार्केट का हाल
करोल बाग में बाबा रामदेव चौक पर (जिसके बगल में धमाका हुआ) अन्य दिनों की तरह रविवार को भी जाम लगा हुआ है। दरअसल घटना स्थल के दोनों तरफ पुलिस ने बैरिकेटिंग कर दिया है और लोगों को आने जाने में काफी परेशानी हो रही है।
इलेक्ट्रॉनिक मार्केट और गफ्फार मार्केट दोनों खुले हुए हैं, लेकिन लोगों की संख्या काफी कम है। एक दुकानदार ने बताया कि आज धंधा पूरी तरह से मंदा है। 10 फीसदी लोग भी नही आ रहे हैं। बाजार की मुख्य सड़क पर गणेश चतुर्थी की विसर्जन यात्रा भी धूमधाम से निकल रही थी।
काफी संख्या में लोग इसमें शामिल थे। यात्रा के संयोजक अनिल का कहना है कि शनिवार का हादसा तो हमने प्रत्यक्ष तौर पर देखा है। लेकिन दिल्ली कभी थमती नही है। आज से हमलोग अपने अपने काम में लग गए हैं।
सरोजिनी नगर
सरोजिनी बाजार की हालत सामान्य है। दोपहर बाद यहां लोगों की संख्या में इजाफा होता गया। यह बाजार भी कभी इन हादसों का गवाह रहा था। आम रविवार की तुलना में बाजार में चहलकदमी कम है। कैपिटल इंपोरियम के मैनेजर रवि बत्रा का कहना है कि धमाके का असर आम लोगों पर है। वे बाहर नही निकल रहे हैं। उन्होंने अगले 1 सप्ताह के भीतर बाजार में फिर से चहल पहल शुरू हो जाने की उम्मीद जताई है।
दहशतगर्दों के सीनों में दहशत पैदा करके ही आतंकवादी वारदातों को रोका जा सकता है - मनीष सिंघल, सिंघल रोडवेज, कानपुर
दिल्ली देश के कारोबार का अड्डा है। दूसरे राज्यों पर भी इसका असर देखने को मिलेगा - श्रीराम चौधरी, जगदम्बा ट्रेडर्स, पटना
संकट की इस घड़ी में व्यापारी समाज देश के साथ खड़ा है। आतंकवादियों का जल्द ही सफाया होगा - बनवारी लाल कंछल, उद्योग प्रदेश उद्योग व्यापार मंडल
रविवार को दिल्ली के आईटीओ चौराहे पर लगा एक सरकारी विज्ञापन हर राहगीर को मुंह चिढ़ा रहा था। विज्ञापन में बड़े अक्षरों में लिखा है कि 'चारों तरफ जगमगा रही है दिल्ली।'
जी तो हमारा भी यही चाह रहा था कि लिख दें कि बम धमाकों से बेफिक्र रही दिल्ली। लेकिन हकीकत यह है कि लोग फिर से उठ खड़े तो हुए हैं, हिम्मत की भी र्कोई कमी नहीं है। चारो तरफ दूसरों की मदद का जोरदार जज्बा दिखा है, लेकिन शहर में हर शख्स डरा सहमा सा है।
दिल्ली के रीगल सिनेमा के पास रविवार दोपहर तक लोगों की आवाजाही काफी कम रही। अधिकतर दुकानें बंद थी। रीगल के बगल में श्रीलेदर्स का शोरूम खुला है। लेकिन इक्के दुक्के लोग खरीदारी के लिए दुकान में आ रहे हैं।
श्रीलेदर्स के कनॉट प्लेस के शोरूम के मैनेजर शांतनु ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि आम रविवार की तुलना में इस बार सिर्फ 10 फीसदी लोग खरीदारी के लिए आ रहे हैं। रीगल के बाहर पान-मसाला की रेहड़ी लगाने वाला शिव नारायण तिवारी की दुकान उस कूड़ेदान के बगल में है, जहां शनिवार को जिंदा बम मिला था।
उस वक्त के माहौल का जिक्र करते हुए वह बताता है, चारों तरफ लोगों का हूजूम उमड़ पड़ा था। सभी लोग सेंट्रल पार्क में मदद के लिए भागे जा रहे थे। यहां पर तो सारी दुकानें उस वक्त खाली करा दी गई थी और उस जिंदा बम को डिफ्यूज करने वाली मशीन यहां लगा दी गई थी।
जनपथ बाजार
रविवार को जनपथ बाजार पर भी सन्नाटा पसरा हुआ है। यहां पर आम रविवार को सैकड़ों दुकानें लगती है। कपड़े आदि के सामान रविवार को खरीदने बड़ी संख्या में लोग आते हैं। लेकिन इस रविवार को हालत बिल्कुल विपरीत है।
जनपथ बाजार में रेहड़ी लगाकर कपड़े बेचने वाला राजेश सिंह ने कहा कि नई दिल्ली नगरपालिका परिषद (एनडीएमसी) और दिल्ली पुलिस ने सतर्कता के तौर पर आज बाजार बंद रखने को कहा है। राजेश सिंह बताते हैं कि यहां पर दुकान का किराया 2500 से 3000 रुपये प्रति दिन है और रविवार को दुकान बंद रहने की वजह से व्यापारियों को औसतन 50 से 60 हजार का घाटा हो रहा है।
जनपथ बाजार के बाहर पुलिस बूथ पर काफी संख्या में पुलिस गश्त लगा रहे थे। पुलिस यह मानने को कतई तैयार नही हुए कि शनिवार के हादसे का लोगों पर कोई असर है। लेकिन पुलिस की यह बात तब खोखली साबित हुई, जब जनपथ बाजार के बाहर एक महिला आर के पुरम जाने के लिए ऑटो की तलाश कर रही थी और उसे ऑटो रिक्शा नजर नहीं आ रहा था।
करोल बाग और गफ्फार मार्केट का हाल
करोल बाग में बाबा रामदेव चौक पर (जिसके बगल में धमाका हुआ) अन्य दिनों की तरह रविवार को भी जाम लगा हुआ है। दरअसल घटना स्थल के दोनों तरफ पुलिस ने बैरिकेटिंग कर दिया है और लोगों को आने जाने में काफी परेशानी हो रही है।
इलेक्ट्रॉनिक मार्केट और गफ्फार मार्केट दोनों खुले हुए हैं, लेकिन लोगों की संख्या काफी कम है। एक दुकानदार ने बताया कि आज धंधा पूरी तरह से मंदा है। 10 फीसदी लोग भी नही आ रहे हैं। बाजार की मुख्य सड़क पर गणेश चतुर्थी की विसर्जन यात्रा भी धूमधाम से निकल रही थी।
काफी संख्या में लोग इसमें शामिल थे। यात्रा के संयोजक अनिल का कहना है कि शनिवार का हादसा तो हमने प्रत्यक्ष तौर पर देखा है। लेकिन दिल्ली कभी थमती नही है। आज से हमलोग अपने अपने काम में लग गए हैं।
सरोजिनी नगर
सरोजिनी बाजार की हालत सामान्य है। दोपहर बाद यहां लोगों की संख्या में इजाफा होता गया। यह बाजार भी कभी इन हादसों का गवाह रहा था। आम रविवार की तुलना में बाजार में चहलकदमी कम है। कैपिटल इंपोरियम के मैनेजर रवि बत्रा का कहना है कि धमाके का असर आम लोगों पर है। वे बाहर नही निकल रहे हैं। उन्होंने अगले 1 सप्ताह के भीतर बाजार में फिर से चहल पहल शुरू हो जाने की उम्मीद जताई है।
दहशतगर्दों के सीनों में दहशत पैदा करके ही आतंकवादी वारदातों को रोका जा सकता है - मनीष सिंघल, सिंघल रोडवेज, कानपुर
दिल्ली देश के कारोबार का अड्डा है। दूसरे राज्यों पर भी इसका असर देखने को मिलेगा - श्रीराम चौधरी, जगदम्बा ट्रेडर्स, पटना
संकट की इस घड़ी में व्यापारी समाज देश के साथ खड़ा है। आतंकवादियों का जल्द ही सफाया होगा - बनवारी लाल कंछल, उद्योग प्रदेश उद्योग व्यापार मंडल
Friday, September 12, 2008
अब दिल्ली में भी कसी जाएगी प्रॉपर्टी डीलरों की नकेल
कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 09, 2008
शहरी विकास मंत्रालय ने दिल्ली में प्रॉपर्टी सौदे को नियंत्रित करने के लिए प्रॉपर्टी डीलर और कंसल्टेंसी विधेयक का मसौदा लगभग तैयार कर लिया है।
मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि इस बाबत नियमन का दस्तावेज लगभग तैयार है और जल्द ही इसे कैबिनेट की मंजूरी के लिए पेश किया जाएगा। हालांकि दिल्ली में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाला है, इसलिए संभव है कि यह विधेयक अगली सरकार की निगरानी में पेश हो।
पूर्व शहरी विकास राज्य मंत्री अजय माकन ने 2006 में कहा था कि प्रॉपर्टी नियामक के लिए दिल्ली सरकार एक विधेयक लाएगी जो अन्य राज्यों के लिए एक मॉडल होगा। लेकिन आलम यह है कि प्रॉपर्टी डीलरों को नियंत्रित करने के लिए दिल्ली में इस तरह का कोई विधेयक अभी तक नही आ पाया है और पड़ोसी राज्य हरियाणा ने बाजी मार ली है।
हरियाणा विधानसभा ने पिछले मंगलवार को जब हरियाणा प्रॉपर्टी डीलर और कंसल्टेंट विधेयक 2008 पारित किया, तो दिल्ली के सरकारी महकमे में भी हलचल होने लगी। प्रॉपर्टी डीलर नियामक विधेयक न होने की वजह से लोगों को भी काफी परेशानी उठानी पड़ती है। प्रॉपर्टी डीलर किसी भी प्रकार के सौदे का रिकॉर्ड नही रखते हैं।
जब भी कभी किसी प्रॉपर्टी को बेचने या खरीदने की बात डीलर के जरिये होती है, तो वे बतौर कमीशन बड़ी राशि ऐंठते हैं। ज्यादातर मामले में तो खरीदार और विक्रेता दोनों पक्षो से प्रॉपर्टी डीलर कमीशन लेते हैं। जब इस तरह के सौदे में किसी तरह का विवाद उत्पन्न होता है, तो ये प्रॉपर्टी डीलर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। इसके अलावा प्रॉपर्टी डीलरों द्वारा जो कमीशन लिया जाता है, उसकी कोई नियत दर नही होती है।
रियल एस्टेट बाजार में मूल्यों को अपने हिसाब से नियंत्रित करने के लिए प्रॉपर्टी डीलर गलत तरीके का भी इस्तेमाल करते हैं। पहाड़गंज के शर्मा प्रॉपर्टी डीलर एडवाइजर एंड कॉन्ट्रैक्टर के मालिक मानस शर्मा ने बताया कि हमारे यहां हर प्रकार के सौदे के लिए नियत दरें उपलब्ध हैं।
अगर कोई खरीद बिक्री का सौदा 15 लाख से ज्यादा का होता है, तो हमलोग 1 फीसदी कमीशन लेते हैं और इससे कम की खरीद बिक्री पर 2 फीसदी कमीशन लेते हैं। मानस ने कहा कि उन्हें किसी प्रकार के बिल आने से कोई परेशानी नही है। मुझे तो और खुशी होगी कि प्रॉपर्टी डीलिंग के धंधे में जो कुछ गलत लोग आ गए है, उन पर इससे लगाम लगाई जा सकेगी।
दरियागंज के सतीश प्रॉपर्टी के मालिक शशि टंडन ने कहा कानून के आने से कोई फर्क नही पड़ता है। अगर सरकार सच्चे मन से चाहती है कि प्रॉपर्टी के धंधे में गोरखधंधे को रोका जाए, तो उसे इन नियमों को सख्ती से क्रियान्वित करना चाहिए।
शहरी विकास मंत्रालय ने दिल्ली में प्रॉपर्टी सौदे को नियंत्रित करने के लिए प्रॉपर्टी डीलर और कंसल्टेंसी विधेयक का मसौदा लगभग तैयार कर लिया है।
मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि इस बाबत नियमन का दस्तावेज लगभग तैयार है और जल्द ही इसे कैबिनेट की मंजूरी के लिए पेश किया जाएगा। हालांकि दिल्ली में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाला है, इसलिए संभव है कि यह विधेयक अगली सरकार की निगरानी में पेश हो।
पूर्व शहरी विकास राज्य मंत्री अजय माकन ने 2006 में कहा था कि प्रॉपर्टी नियामक के लिए दिल्ली सरकार एक विधेयक लाएगी जो अन्य राज्यों के लिए एक मॉडल होगा। लेकिन आलम यह है कि प्रॉपर्टी डीलरों को नियंत्रित करने के लिए दिल्ली में इस तरह का कोई विधेयक अभी तक नही आ पाया है और पड़ोसी राज्य हरियाणा ने बाजी मार ली है।
हरियाणा विधानसभा ने पिछले मंगलवार को जब हरियाणा प्रॉपर्टी डीलर और कंसल्टेंट विधेयक 2008 पारित किया, तो दिल्ली के सरकारी महकमे में भी हलचल होने लगी। प्रॉपर्टी डीलर नियामक विधेयक न होने की वजह से लोगों को भी काफी परेशानी उठानी पड़ती है। प्रॉपर्टी डीलर किसी भी प्रकार के सौदे का रिकॉर्ड नही रखते हैं।
जब भी कभी किसी प्रॉपर्टी को बेचने या खरीदने की बात डीलर के जरिये होती है, तो वे बतौर कमीशन बड़ी राशि ऐंठते हैं। ज्यादातर मामले में तो खरीदार और विक्रेता दोनों पक्षो से प्रॉपर्टी डीलर कमीशन लेते हैं। जब इस तरह के सौदे में किसी तरह का विवाद उत्पन्न होता है, तो ये प्रॉपर्टी डीलर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। इसके अलावा प्रॉपर्टी डीलरों द्वारा जो कमीशन लिया जाता है, उसकी कोई नियत दर नही होती है।
रियल एस्टेट बाजार में मूल्यों को अपने हिसाब से नियंत्रित करने के लिए प्रॉपर्टी डीलर गलत तरीके का भी इस्तेमाल करते हैं। पहाड़गंज के शर्मा प्रॉपर्टी डीलर एडवाइजर एंड कॉन्ट्रैक्टर के मालिक मानस शर्मा ने बताया कि हमारे यहां हर प्रकार के सौदे के लिए नियत दरें उपलब्ध हैं।
अगर कोई खरीद बिक्री का सौदा 15 लाख से ज्यादा का होता है, तो हमलोग 1 फीसदी कमीशन लेते हैं और इससे कम की खरीद बिक्री पर 2 फीसदी कमीशन लेते हैं। मानस ने कहा कि उन्हें किसी प्रकार के बिल आने से कोई परेशानी नही है। मुझे तो और खुशी होगी कि प्रॉपर्टी डीलिंग के धंधे में जो कुछ गलत लोग आ गए है, उन पर इससे लगाम लगाई जा सकेगी।
दरियागंज के सतीश प्रॉपर्टी के मालिक शशि टंडन ने कहा कानून के आने से कोई फर्क नही पड़ता है। अगर सरकार सच्चे मन से चाहती है कि प्रॉपर्टी के धंधे में गोरखधंधे को रोका जाए, तो उसे इन नियमों को सख्ती से क्रियान्वित करना चाहिए।
Thursday, September 4, 2008
राष्ट्रमंडल खेलों के बहाने संवरने लगा गुड़गांव
कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 02, 2008
राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर दिल्ली के साथ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) को भी संवारने की तैयारी जोरों पर है। इस कड़ी में राजधानी से सटा गुड़गांव भी 2010 में नई दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में जुट गया है।
इस बाबत हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (हुडा) डेढ़ हजार करोड़ रुपये खर्च कर गुड़गांव के सौंदर्यीकरण की योजना बना रहा है। 2010 तक शहर में मेट्रो रेल रूट, न्यू पालम विहार खेड़कीदौला तक दूसरा एक्सप्रेस वे, वाटर ट्रीटमेंट प्लांट और कई विश्वस्तरीय होटल बनाए जाएंगे।
गुड़गांव में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कादरपुर स्थित प्रशिक्षण केंद्र में राष्ट्रमंडल खेलों की निशानेबाजी प्रतियोगिता आयोजित होगी। हुडा की प्रशासक जी अनुपमा ने टेलीफोन पर बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि राष्ट्रमंडल खेल तक गुड़गांव को पूरी तरह से सौंदर्यीकृत कर लिया जाएगा और इसे ब्रांड के तौर पर पेश किया जाएगा।
शहर में पार्क, सड़कें, सीवर, पानी, पार्किंग और होटल को सुव्यवस्थित तरीके से निर्मित किया जाएगा। शहर में मास रैपिड ट्रैफिक मैनेजमेंट सिस्टम भी लागू किया जाएगा। इसके लिए सर्वेक्षण की प्रक्रिया भी शुरु हो गई है। शहर में फुट ओवर ब्रिज, फ्लाईओवर, एस्केलेटर फुट ओवर ब्रिज, गोल चक्कर , पार्क आदि के निर्माण स्थल के चयन के लिए विलबर्ड स्मिथ कंसल्टेंसी फर्म के जरिये सर्वेक्षण भी कराया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि पार्कों को औद्योगिक इकाइयों के सहयोग से विकसित किया जाएगा। इसके लिए गुड़गांव के औद्योगिक संगठनों से बात भी चल रही है। दिल्ली से आवागमन संपर्क को बेहतर बनाने के लिए डेढ़ सौ मीटर चौड़ी सड़क के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया अंतिम चरण में है।
इन सारी परियोजनाओं के लिए हुडा को राशि उपलब्ध कराई जा चुकी है, जिसका वितरण सितंबर माह से शुरु हो जाएगा। राष्ट्रमंडल खेलों तक एक हजार क्यूसेक क्षमता की एनसीआर चैनल का काम भी पूरा कर लिया जाएगा। इस परियोजना के पूरा हो जाने के बाद गुड़गांव में पानी किल्लत की समस्या खत्म हो जाएगी। हरियाणा की कुल आमदनी का 40 प्रतिशत अकेले गुड़गांव से होता है।
राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर दिल्ली के साथ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) को भी संवारने की तैयारी जोरों पर है। इस कड़ी में राजधानी से सटा गुड़गांव भी 2010 में नई दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में जुट गया है।
इस बाबत हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (हुडा) डेढ़ हजार करोड़ रुपये खर्च कर गुड़गांव के सौंदर्यीकरण की योजना बना रहा है। 2010 तक शहर में मेट्रो रेल रूट, न्यू पालम विहार खेड़कीदौला तक दूसरा एक्सप्रेस वे, वाटर ट्रीटमेंट प्लांट और कई विश्वस्तरीय होटल बनाए जाएंगे।
गुड़गांव में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कादरपुर स्थित प्रशिक्षण केंद्र में राष्ट्रमंडल खेलों की निशानेबाजी प्रतियोगिता आयोजित होगी। हुडा की प्रशासक जी अनुपमा ने टेलीफोन पर बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि राष्ट्रमंडल खेल तक गुड़गांव को पूरी तरह से सौंदर्यीकृत कर लिया जाएगा और इसे ब्रांड के तौर पर पेश किया जाएगा।
शहर में पार्क, सड़कें, सीवर, पानी, पार्किंग और होटल को सुव्यवस्थित तरीके से निर्मित किया जाएगा। शहर में मास रैपिड ट्रैफिक मैनेजमेंट सिस्टम भी लागू किया जाएगा। इसके लिए सर्वेक्षण की प्रक्रिया भी शुरु हो गई है। शहर में फुट ओवर ब्रिज, फ्लाईओवर, एस्केलेटर फुट ओवर ब्रिज, गोल चक्कर , पार्क आदि के निर्माण स्थल के चयन के लिए विलबर्ड स्मिथ कंसल्टेंसी फर्म के जरिये सर्वेक्षण भी कराया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि पार्कों को औद्योगिक इकाइयों के सहयोग से विकसित किया जाएगा। इसके लिए गुड़गांव के औद्योगिक संगठनों से बात भी चल रही है। दिल्ली से आवागमन संपर्क को बेहतर बनाने के लिए डेढ़ सौ मीटर चौड़ी सड़क के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया अंतिम चरण में है।
इन सारी परियोजनाओं के लिए हुडा को राशि उपलब्ध कराई जा चुकी है, जिसका वितरण सितंबर माह से शुरु हो जाएगा। राष्ट्रमंडल खेलों तक एक हजार क्यूसेक क्षमता की एनसीआर चैनल का काम भी पूरा कर लिया जाएगा। इस परियोजना के पूरा हो जाने के बाद गुड़गांव में पानी किल्लत की समस्या खत्म हो जाएगी। हरियाणा की कुल आमदनी का 40 प्रतिशत अकेले गुड़गांव से होता है।
मौसम की बेरुखी से लुट गई खरीफ की बगिया
खरीफ फसल का अंकगणित - बिहार में 150 करोड़ रु. की फसल बर्बाद
कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 03, 2008
बिहार में आई विनाशकारी बाढ़ की वजह से 1.25 हेक्टेयर में फैली 150 करोड़ रुपये की फसल बर्बाद हुई है। राज्य कृषि विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि यह आंकड़ा आने वाले दिनों में और बढ़ सकता है।
उन्होंने कहा कि धान और मक्का की फसलें पूरी तरह बर्बाद हो गई है। इसके अलावा दलहन, केला और सब्जियों की बागवानी भी बर्बाद हुए हैं। बर्बादी का आकलन फसल के क्षेत्रफल और बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में औसत उपज के आधार पर किया जा रहा है।
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर बाढ़ के बाद खेतों में नमकीन रेत रह जाती है, तो इससे रबी फसल भी प्रभावित हो सकती है। उल्लेखनीय है कि राज्य की मुख्य खरीफ फसलों में चावल और मक्का है जिसकी बुआई जून-जुलाई में शुरू हो जाती है। मगर इस साल सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा में आई बाढ़ से ये फसलें पूरी तरह बर्बाद हो गई हैं।
विश्लेषक मानते हैं कि बिहार के दूसरे इलाके में इसके रकबे को बढ़ाकर इस नुकसान को कमोबेश कम किया जा सकता है। पिछले साल देश में 8 करोड़ 30 लाख टन चावल का उत्पादन हुआ था, जो उससे पिछले साल के 8 करोड़ टन से थोडा ज्यादा था।
मोटे तौर पर भारत में इस साल जून तक 9 करोड़ 30 लाख टन चावल का उत्पादन हुआ है। मगर इस साल बाढ़ की वजह से खरीफ की बुआई में 2 से 3 प्रतिशत की कमी देखी जा सकती है। देश में मक्के का उत्पादन 67 लाख हेक्टेयर में होने का अनुमान है।
कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली September 03, 2008
बिहार में आई विनाशकारी बाढ़ की वजह से 1.25 हेक्टेयर में फैली 150 करोड़ रुपये की फसल बर्बाद हुई है। राज्य कृषि विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि यह आंकड़ा आने वाले दिनों में और बढ़ सकता है।
उन्होंने कहा कि धान और मक्का की फसलें पूरी तरह बर्बाद हो गई है। इसके अलावा दलहन, केला और सब्जियों की बागवानी भी बर्बाद हुए हैं। बर्बादी का आकलन फसल के क्षेत्रफल और बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में औसत उपज के आधार पर किया जा रहा है।
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर बाढ़ के बाद खेतों में नमकीन रेत रह जाती है, तो इससे रबी फसल भी प्रभावित हो सकती है। उल्लेखनीय है कि राज्य की मुख्य खरीफ फसलों में चावल और मक्का है जिसकी बुआई जून-जुलाई में शुरू हो जाती है। मगर इस साल सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा में आई बाढ़ से ये फसलें पूरी तरह बर्बाद हो गई हैं।
विश्लेषक मानते हैं कि बिहार के दूसरे इलाके में इसके रकबे को बढ़ाकर इस नुकसान को कमोबेश कम किया जा सकता है। पिछले साल देश में 8 करोड़ 30 लाख टन चावल का उत्पादन हुआ था, जो उससे पिछले साल के 8 करोड़ टन से थोडा ज्यादा था।
मोटे तौर पर भारत में इस साल जून तक 9 करोड़ 30 लाख टन चावल का उत्पादन हुआ है। मगर इस साल बाढ़ की वजह से खरीफ की बुआई में 2 से 3 प्रतिशत की कमी देखी जा सकती है। देश में मक्के का उत्पादन 67 लाख हेक्टेयर में होने का अनुमान है।
मदद की तलाश छोड़ बने मददगार
कुमार नरोत्तम / नई दिल्ली August 31, 2008
बिहार में बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के आम लोग अब राहत कार्य में मदद करने के लिए आगे बढ़ कर आए हैं।
बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के ऐसे इलाके, जहां पानी नहीं घुसा है, वहां के हर घर से पांच रोटी और सब्जी एकत्रित की जा रही है। उसके बाद ये लोग पेड़ों पर कैंप लगाकर बाढ़ में फंसे लोगों को पुकार-पुकार कर खाना भेजने का प्रबंध कर रहे हैं।
खाने के साथ-साथ पीने के पानी की भी व्यवस्था की जा रही है। सहरसा के नजदीक डिस्टीलेशन केंद्र पर पानी को पैक कर सील करवाया जा रहा है और बाढ़ पीड़ितों को पानी मुफ्त में भेजा जा रहा है। सहरसा जिले के निवासी संजय कुमार ने बताया कि बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों के रेलवे स्टेशनों से गुजरने वाली ट्रेनों को रोककर हर बोगी में जा-जाकर बाढ़ पीड़ितों को खाना और पानी पहुंचाया जा रहा है।
बिहार में बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के आम लोग अब राहत कार्य में मदद करने के लिए आगे बढ़ कर आए हैं।
बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के ऐसे इलाके, जहां पानी नहीं घुसा है, वहां के हर घर से पांच रोटी और सब्जी एकत्रित की जा रही है। उसके बाद ये लोग पेड़ों पर कैंप लगाकर बाढ़ में फंसे लोगों को पुकार-पुकार कर खाना भेजने का प्रबंध कर रहे हैं।
खाने के साथ-साथ पीने के पानी की भी व्यवस्था की जा रही है। सहरसा के नजदीक डिस्टीलेशन केंद्र पर पानी को पैक कर सील करवाया जा रहा है और बाढ़ पीड़ितों को पानी मुफ्त में भेजा जा रहा है। सहरसा जिले के निवासी संजय कुमार ने बताया कि बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों के रेलवे स्टेशनों से गुजरने वाली ट्रेनों को रोककर हर बोगी में जा-जाकर बाढ़ पीड़ितों को खाना और पानी पहुंचाया जा रहा है।
छोटा पत्रकार बड़ा पत्रकार
समाज के इन दो वर्गों को कवर करते हुए पत्रकार भी दो श्रेणियों में बंटे हुए हैं. एक है छोटा पत्रकार. बेचारा. चेहरे पर दीन-हीन भाव, पिचके गाल और पेट, कभी कुर्ता तो कभी कंधे पर बैग लटकाए. दुम हिलाते आगे-पीछे घूमते हुए.
एक है बड़ा पत्रकार. चेहरे पर कुलीनता. मोटी तनख्वाहों से पेट और गाल फूलते हुए. कभी कुर्ता पहने तो चंपू बोले वाह सर क्या फैशन है. चार पांच चंपू आगे-पीछे घूमते हुए.
ख़बर भी इन दोनों के अंतर को समझती है. इसलिए छोटा पत्रकार ख़बर के पीछे भागता है. ख़बर बड़े पत्रकार के पीछे भागती है.
बड़ा पत्रकार ख़बर बनाता भी है. छोटा पत्रकार बड़े पत्रकार पर ख़बर लिखकर खुद को धन्य महसूस करता है. बड़े पत्रकार का पार्टियों में जाना, मैय्यत में जाना, नए ढंग से बाल कटवाना सब ख़बर है.
बड़ा पत्रकार पैदा होता है. छोटा पत्रकार छोटी जगह से आकर बड़ा बनने की कोशिश करता है.
बड़े पत्रकार के मुंह में चांदी की चम्मच होती है. वो बड़े स्कूलों में पढ़ने जाता है. शुरू से उसकी ज़बान अंग्रेजी बोलती है. हिंदी में वो सिर्फ़ अपनी कामवाली बाइयों और ड्राइवर से ही बात कर पाता है.
छोटा पत्रकार टाटपट्टियों पर बैठकर पढ़ाई करता है. मास्टरजी की बेंत उसके हाथों को लाल करती है. बारहवीं कक्षा तक फ़ादअ को फ़ादर और विंड को वाइंड कहता है. गुड मॉर्निंग कहने में ही उसके चेहरा शर्म से लाल हो जाता है.
नौकरियां छोटे पत्रकार को दुत्कारती हैं. बड़े पत्रकार को बुलाती हैं. नेता भी बड़े पत्रकार को पूछते हैं. छोटे से पूछते हैं तेरी औकात क्या है.
लेकिन छोटा कभी कभी बड़े काम करने की कोशिश भी करता है. कभी-कभी कर भी जाता है. लेकिन जब बड़ी ख़बर लेकर बड़े पत्रकार के पास जाता है तो बड़े पत्रकार को उसके इरादों पर शक होने लगता है.
कही ये अपनी औकात से बाहर तो नहीं निकल रहा. कहीं ये मेरी जगह लेने की कोशिश तो नहीं कर रहा. अबे ओ हरामी छोटे पत्रकार. अपनी औकात में रह. ये ख़बर अख़बार में नहीं जाएगी.
बड़ा पत्रकार कई बार छोटे को ख़बर का मतलब भी समझाने लगता है. देख छोटे. आज कल न ये समाजसेवी ख़बरों का ज़माना नहीं रहा. भ्रष्टाचार का खुलासा करेगा. अरे वो तो हर जगह है. आज के ज़माने में नई तरह की ख़बरें चलती हैं.
देख छोटे. टीवी चैनल्स को देख. वहां क्या नहीं बिक रहा है. खली चल रहा है. राखी सावंत के लटके-झटके चल रहे हैं. तू इन सबके बीच ये ख़बर कहां से ले आया रे.
लेकिन हुजूर हमें तो यही सिखाया गया. अबे चुप ईडियट. क्या पोंगा पंडितों की बात करता है. देख तेरी इच्छा यही है न कि तू भी बड़ा पत्रकार बने. बड़ी गाड़ी में घूमे. मोटी तनख्वाह पाए. इसलिए जो तूझे सिखाया गया उसको भूल जा. अब जैसा मैं करता हूं वैसा कर तो बड़ा पत्रकार बन जाएगा.
अबे तेरी औकात क्या है छोटे. कहता है बीस साल हो गए पत्रकारिता में. क्या मिला. अरे मिलेगा क्या. बाबाजी का घंटा. हमें देख. दस साल में कहां से कहां पहुंच गए.
छोटा और छोटा हो जाता है. लटका चेहरा लटक कर पैर तक पहुंचता है. घर पहुंचता है तो बीवी की मुस्कान उसे चुड़ैल के अट्टहास की तरह लगती है. कल तक जिस बेटे को सिर आँखों पर रखा उसे लात मार कर बोलता है अबे ओ छोटे की औलाद. तू ज़िंदगी भर छोटे की औलाद ही रहेगा.
Posted by akhilesh sharma
एक है बड़ा पत्रकार. चेहरे पर कुलीनता. मोटी तनख्वाहों से पेट और गाल फूलते हुए. कभी कुर्ता पहने तो चंपू बोले वाह सर क्या फैशन है. चार पांच चंपू आगे-पीछे घूमते हुए.
ख़बर भी इन दोनों के अंतर को समझती है. इसलिए छोटा पत्रकार ख़बर के पीछे भागता है. ख़बर बड़े पत्रकार के पीछे भागती है.
बड़ा पत्रकार ख़बर बनाता भी है. छोटा पत्रकार बड़े पत्रकार पर ख़बर लिखकर खुद को धन्य महसूस करता है. बड़े पत्रकार का पार्टियों में जाना, मैय्यत में जाना, नए ढंग से बाल कटवाना सब ख़बर है.
बड़ा पत्रकार पैदा होता है. छोटा पत्रकार छोटी जगह से आकर बड़ा बनने की कोशिश करता है.
बड़े पत्रकार के मुंह में चांदी की चम्मच होती है. वो बड़े स्कूलों में पढ़ने जाता है. शुरू से उसकी ज़बान अंग्रेजी बोलती है. हिंदी में वो सिर्फ़ अपनी कामवाली बाइयों और ड्राइवर से ही बात कर पाता है.
छोटा पत्रकार टाटपट्टियों पर बैठकर पढ़ाई करता है. मास्टरजी की बेंत उसके हाथों को लाल करती है. बारहवीं कक्षा तक फ़ादअ को फ़ादर और विंड को वाइंड कहता है. गुड मॉर्निंग कहने में ही उसके चेहरा शर्म से लाल हो जाता है.
नौकरियां छोटे पत्रकार को दुत्कारती हैं. बड़े पत्रकार को बुलाती हैं. नेता भी बड़े पत्रकार को पूछते हैं. छोटे से पूछते हैं तेरी औकात क्या है.
लेकिन छोटा कभी कभी बड़े काम करने की कोशिश भी करता है. कभी-कभी कर भी जाता है. लेकिन जब बड़ी ख़बर लेकर बड़े पत्रकार के पास जाता है तो बड़े पत्रकार को उसके इरादों पर शक होने लगता है.
कही ये अपनी औकात से बाहर तो नहीं निकल रहा. कहीं ये मेरी जगह लेने की कोशिश तो नहीं कर रहा. अबे ओ हरामी छोटे पत्रकार. अपनी औकात में रह. ये ख़बर अख़बार में नहीं जाएगी.
बड़ा पत्रकार कई बार छोटे को ख़बर का मतलब भी समझाने लगता है. देख छोटे. आज कल न ये समाजसेवी ख़बरों का ज़माना नहीं रहा. भ्रष्टाचार का खुलासा करेगा. अरे वो तो हर जगह है. आज के ज़माने में नई तरह की ख़बरें चलती हैं.
देख छोटे. टीवी चैनल्स को देख. वहां क्या नहीं बिक रहा है. खली चल रहा है. राखी सावंत के लटके-झटके चल रहे हैं. तू इन सबके बीच ये ख़बर कहां से ले आया रे.
लेकिन हुजूर हमें तो यही सिखाया गया. अबे चुप ईडियट. क्या पोंगा पंडितों की बात करता है. देख तेरी इच्छा यही है न कि तू भी बड़ा पत्रकार बने. बड़ी गाड़ी में घूमे. मोटी तनख्वाह पाए. इसलिए जो तूझे सिखाया गया उसको भूल जा. अब जैसा मैं करता हूं वैसा कर तो बड़ा पत्रकार बन जाएगा.
अबे तेरी औकात क्या है छोटे. कहता है बीस साल हो गए पत्रकारिता में. क्या मिला. अरे मिलेगा क्या. बाबाजी का घंटा. हमें देख. दस साल में कहां से कहां पहुंच गए.
छोटा और छोटा हो जाता है. लटका चेहरा लटक कर पैर तक पहुंचता है. घर पहुंचता है तो बीवी की मुस्कान उसे चुड़ैल के अट्टहास की तरह लगती है. कल तक जिस बेटे को सिर आँखों पर रखा उसे लात मार कर बोलता है अबे ओ छोटे की औलाद. तू ज़िंदगी भर छोटे की औलाद ही रहेगा.
Posted by akhilesh sharma
मायावती की तो जान ही ले लेते!
» रात्रि उड़ान के लिए प्रतिबंधित हेलीकॉप्टर उड़ा रहे थे कैबिनेट सेक्रेटरी
» प्रदेश के उड्डयन महकमे में भीषण भ्रष्टाचार, खतरे में वीवीआईपी उड़ानें
» बिना किसी ट्रेनिंग के उड़ा रहे हैं अमेरिकी विमान और हेलीकॉप्टर
एक सितम्बर की रात प्रदेश में एक बड़ा हादसा हो सकता था। जो नौकरशाह मुख्यमंत्री की हिफाजत के प्रति आधिकारिक तौर पर जवाबदेह हैं वे अपनी गैरजिम्मेदाराना हरकतों से उस दिन मुख्यमंत्री मायावती की जान ही ले लेते। वीवीआईपी उड़ान की उच्च संवेदनशीलता के बावजूद उस दिन जिस स्तर की खतरनाक तकनीकी चूक की गई, वह उड्डयन इतिहास का नायाब पन्ना है। जिस सिंगल इंजिन हेलीकॉप्टर पर मुख्यमंत्री मायावती को बैठा कर रात में संत कबीर नगर और फैजाबाद ले जाया गया, उस हेलीकॉप्टर के लिए रात की फ्लाइंग कानूनन प्रतिबंधित है। उसमें रात्रि उड़ान के उपकरण हैं ही नहीं। रात में जब मुख्यमंत्री को लेकर वही हेलीकॉप्टर संत कबीर नगर से उड़ा तो टेक-ऑफ के लिए कारों की बत्तियां जलानी पड़ीं। फिर फैजाबाद में नाइट लैंडिंग का खतरनाक जोखिम उठाया गया। उसके बाद लखनऊ से गए विमान से मायावती वापस लौटीं। बात यहां खत्म नहीं होती। बात यहीं से शुरू होती है। वीवीआईपी उड़ान को लेकर यह जो गैरजिम्मेदाराना कृत्य हुआ वह उत्तर प्रदेश के कैबिनेट सेक्रेटरी शशांक शेखर सिंह ने किया। सिंगल इंजिन वाला जर्जर हेलीकॉप्टर खुद शशांक और विंग कमांडर आरएन सेनगुप्ता उड़ा रहे थे। शशांक प्रदेश सरकार के उड्डयन सलाहकार भी हैं और पाइलट भी। प्रतिबंधित हेलीकॉप्टर को रात में उड़ाने का मसला नागरिक उड्डयन महानिदेशालय [डीजीसीए] तक तूल न पकड़े इसके लिए उड़ान दस्तावेजों में समय को लेकर फर्जी तथ्य भी दर्ज किए गए।
फैजाबाद में एयरपोर्ट अथॉरिटी का कोई एयर ट्रैफिक कंट्रोल नहीं है, लिहाजा हेलीकॉप्टर की लैंडिंग का समय अपनी मर्जी से शाम करीब सवा छह बजे और हवाई जहाज के टेक-ऑफ का समय करीब साढ़े छह बजे दर्ज कर दिया गया। लेकिन लखनऊ के एयर ट्रैफिक कंट्रोल में मायावती को लेकर आए विमान [सुपर किंग एयर] के लखनऊ पहुंचने का समय आधिकारिक तौर पर रात का सवा आठ [8.15] दर्ज है। अगर हवाई जहाज ने साढ़े छह बजे शाम फैजाबाद से लखनऊ के लिए उड़ान भरी तो उसे लखनऊ पहुंचने में सवा दो घंटे क्यों लगे? मुख्यमंत्री की सुरक्षा को लेकर उड्डयन महकमे की लापरवाही का आलम यह है कि उन्हें 'रेस्क्यु’ कर लाने के लिए भेजे गए विमान को भी अयोग्य घोषित पाइलट ही उड़ा रहे थे। इनमें से एक वयोवृद्ध कैप्टन पीसीएफ डिसूजा मेडिकली अनफिट हैं तो दूसरे कैप्टन वीवी सिंह भी करीब 62 साल के हैं जो उड़ान अर्हता पास नहीं हैं।
अमेरिका से बड़े नाज नखरे से जो विमान [वीटीयूपीएन] और हेलीकॉप्टर [वीटीयूपीओ] लखनऊ लाया गया था, उससे जुड़े तथ्य भी कम रोचक-रोमांचक नहीं हैं। विमान पूर्ण रूप से जेट विमान है। इसे उड़ाने की योग्यता उत्तर प्रदेश में किसी के पास नहीं है। लेकिन उक्त विमान और हेलीकॉप्टर दोनों से ही वीवीआईपी सवारियां लेकर उड़ान भरने का भारी रिस्क लगातार उठाया जा रहा है। अभी एक सितम्बर को उसी अमेरिकी हेलीकॉप्टर पर मुख्यमंत्री को बिठा कर उड़ान भरने की कोशिश की गई, लेकिन वह हवा में धचके खाने लगा। किसी तरह हेलीकॉप्टर उतारा गया।
जेट विमान को उड़ाने की ट्रेनिंग के लिए योग्य पाइलटों को न भेज कर कैप्टन वीवी सिंह [62] और वायुसेना से डेपुटेशन पर आए विंग कमांडर राजेश कुमार नागर को अमेरिका भेजा गया। लेकिन कैप्टन वीवी सिंह उड़ान प्रशिक्षण पास नहीं कर पाए। ...और नागर वही हैं जो अभी हाल ही इलाहाबाद में राज्य सरकार का विमान दुर्घटनाग्रस्त कर चुके हैं। हैरत यह है कि अपने प्रदेश के कैबिनेट सेक्रेटरी शशांक शेखर सिंह अमेरिका से आया विमान और हेलीकॉप्टर दोनों ही उड़ा रहे हैं। शशांक जेट विमान की ट्रेनिंग लेने अमेरिका गए भी नहीं और डीजीसीए से 'इंडोर्समेंट’ भी पा लिया!
जिस दिन दिल्ली में विश्वास मत पर संसद में वोट पड़ने वाला था, उस दिन मुख्यमंत्री मायावती की सुरक्षा के साथ विश्वासघात की वजह तैयार हो रही थी। उन्हें उसी जेट विमान से शशांक दिल्ली लेकर गए। शशांक उस विमान को 'सिंगल क्वालिफायड पाइलट’ के बतौर अकेले ही उड़ा रहे थे। डीजीसीए का उड़ान नियम यह कहता है कि पाइलट को सम्बद्ध विमान उड़ाने का कम से कम 50 घंटे का अनुभव बतौर पाइलट इन कमांड [पीआईसी] होना चाहिए। इसके अलावा 50 घंटे की नाइट फ्लाइंग का अनुभव भी अनिवार्य है।
अभी 13/14 अगस्त को कैबिनेट सेक्रेटरी इसी जेट विमान को अकेले उड़ा कर दिल्ली गए। शशांक अपना रूटीन पाइलट मेडिकल जांच कराने गए थे। शाम को 7.17 पर विमान लेकर पालम से उड़े। लेकिन उड़ते ही एटीसी से वापस इमरजेंसी लैंडिंग की इजाजत मांगने लगे। 7.34 में पालम पर ही वापस लैंड किया। पाया गया कि गलत हैंडलिंग के कारण विमान में 'ट्रिम फेल्योर’ हो गया जिस वजह से विमान का नियंत्रण खो चुका था। एयरपोर्ट अथॉरिटी ने इस खराबी के बारे में डीजीसीए को फौरन ही इत्तिला कर दी। लेकिन विमान में खराबी क्यों आई? प्रदेश की मुख्यमंत्री को इन तथ्यों की जानकारी नहीं दी जाती। लखनऊ में बसपाई रैली के दिन उसी अमेरिकी हेलीकॉप्टर से शशांक शेखर उन्हें रैली स्थल तक ले गए थे, जिस दिन मायावती ने मंच से कहा था, 'मेरी जान को खतरा है...’
प्रभात रंजन दीन
» प्रदेश के उड्डयन महकमे में भीषण भ्रष्टाचार, खतरे में वीवीआईपी उड़ानें
» बिना किसी ट्रेनिंग के उड़ा रहे हैं अमेरिकी विमान और हेलीकॉप्टर
एक सितम्बर की रात प्रदेश में एक बड़ा हादसा हो सकता था। जो नौकरशाह मुख्यमंत्री की हिफाजत के प्रति आधिकारिक तौर पर जवाबदेह हैं वे अपनी गैरजिम्मेदाराना हरकतों से उस दिन मुख्यमंत्री मायावती की जान ही ले लेते। वीवीआईपी उड़ान की उच्च संवेदनशीलता के बावजूद उस दिन जिस स्तर की खतरनाक तकनीकी चूक की गई, वह उड्डयन इतिहास का नायाब पन्ना है। जिस सिंगल इंजिन हेलीकॉप्टर पर मुख्यमंत्री मायावती को बैठा कर रात में संत कबीर नगर और फैजाबाद ले जाया गया, उस हेलीकॉप्टर के लिए रात की फ्लाइंग कानूनन प्रतिबंधित है। उसमें रात्रि उड़ान के उपकरण हैं ही नहीं। रात में जब मुख्यमंत्री को लेकर वही हेलीकॉप्टर संत कबीर नगर से उड़ा तो टेक-ऑफ के लिए कारों की बत्तियां जलानी पड़ीं। फिर फैजाबाद में नाइट लैंडिंग का खतरनाक जोखिम उठाया गया। उसके बाद लखनऊ से गए विमान से मायावती वापस लौटीं। बात यहां खत्म नहीं होती। बात यहीं से शुरू होती है। वीवीआईपी उड़ान को लेकर यह जो गैरजिम्मेदाराना कृत्य हुआ वह उत्तर प्रदेश के कैबिनेट सेक्रेटरी शशांक शेखर सिंह ने किया। सिंगल इंजिन वाला जर्जर हेलीकॉप्टर खुद शशांक और विंग कमांडर आरएन सेनगुप्ता उड़ा रहे थे। शशांक प्रदेश सरकार के उड्डयन सलाहकार भी हैं और पाइलट भी। प्रतिबंधित हेलीकॉप्टर को रात में उड़ाने का मसला नागरिक उड्डयन महानिदेशालय [डीजीसीए] तक तूल न पकड़े इसके लिए उड़ान दस्तावेजों में समय को लेकर फर्जी तथ्य भी दर्ज किए गए।
फैजाबाद में एयरपोर्ट अथॉरिटी का कोई एयर ट्रैफिक कंट्रोल नहीं है, लिहाजा हेलीकॉप्टर की लैंडिंग का समय अपनी मर्जी से शाम करीब सवा छह बजे और हवाई जहाज के टेक-ऑफ का समय करीब साढ़े छह बजे दर्ज कर दिया गया। लेकिन लखनऊ के एयर ट्रैफिक कंट्रोल में मायावती को लेकर आए विमान [सुपर किंग एयर] के लखनऊ पहुंचने का समय आधिकारिक तौर पर रात का सवा आठ [8.15] दर्ज है। अगर हवाई जहाज ने साढ़े छह बजे शाम फैजाबाद से लखनऊ के लिए उड़ान भरी तो उसे लखनऊ पहुंचने में सवा दो घंटे क्यों लगे? मुख्यमंत्री की सुरक्षा को लेकर उड्डयन महकमे की लापरवाही का आलम यह है कि उन्हें 'रेस्क्यु’ कर लाने के लिए भेजे गए विमान को भी अयोग्य घोषित पाइलट ही उड़ा रहे थे। इनमें से एक वयोवृद्ध कैप्टन पीसीएफ डिसूजा मेडिकली अनफिट हैं तो दूसरे कैप्टन वीवी सिंह भी करीब 62 साल के हैं जो उड़ान अर्हता पास नहीं हैं।
अमेरिका से बड़े नाज नखरे से जो विमान [वीटीयूपीएन] और हेलीकॉप्टर [वीटीयूपीओ] लखनऊ लाया गया था, उससे जुड़े तथ्य भी कम रोचक-रोमांचक नहीं हैं। विमान पूर्ण रूप से जेट विमान है। इसे उड़ाने की योग्यता उत्तर प्रदेश में किसी के पास नहीं है। लेकिन उक्त विमान और हेलीकॉप्टर दोनों से ही वीवीआईपी सवारियां लेकर उड़ान भरने का भारी रिस्क लगातार उठाया जा रहा है। अभी एक सितम्बर को उसी अमेरिकी हेलीकॉप्टर पर मुख्यमंत्री को बिठा कर उड़ान भरने की कोशिश की गई, लेकिन वह हवा में धचके खाने लगा। किसी तरह हेलीकॉप्टर उतारा गया।
जेट विमान को उड़ाने की ट्रेनिंग के लिए योग्य पाइलटों को न भेज कर कैप्टन वीवी सिंह [62] और वायुसेना से डेपुटेशन पर आए विंग कमांडर राजेश कुमार नागर को अमेरिका भेजा गया। लेकिन कैप्टन वीवी सिंह उड़ान प्रशिक्षण पास नहीं कर पाए। ...और नागर वही हैं जो अभी हाल ही इलाहाबाद में राज्य सरकार का विमान दुर्घटनाग्रस्त कर चुके हैं। हैरत यह है कि अपने प्रदेश के कैबिनेट सेक्रेटरी शशांक शेखर सिंह अमेरिका से आया विमान और हेलीकॉप्टर दोनों ही उड़ा रहे हैं। शशांक जेट विमान की ट्रेनिंग लेने अमेरिका गए भी नहीं और डीजीसीए से 'इंडोर्समेंट’ भी पा लिया!
जिस दिन दिल्ली में विश्वास मत पर संसद में वोट पड़ने वाला था, उस दिन मुख्यमंत्री मायावती की सुरक्षा के साथ विश्वासघात की वजह तैयार हो रही थी। उन्हें उसी जेट विमान से शशांक दिल्ली लेकर गए। शशांक उस विमान को 'सिंगल क्वालिफायड पाइलट’ के बतौर अकेले ही उड़ा रहे थे। डीजीसीए का उड़ान नियम यह कहता है कि पाइलट को सम्बद्ध विमान उड़ाने का कम से कम 50 घंटे का अनुभव बतौर पाइलट इन कमांड [पीआईसी] होना चाहिए। इसके अलावा 50 घंटे की नाइट फ्लाइंग का अनुभव भी अनिवार्य है।
अभी 13/14 अगस्त को कैबिनेट सेक्रेटरी इसी जेट विमान को अकेले उड़ा कर दिल्ली गए। शशांक अपना रूटीन पाइलट मेडिकल जांच कराने गए थे। शाम को 7.17 पर विमान लेकर पालम से उड़े। लेकिन उड़ते ही एटीसी से वापस इमरजेंसी लैंडिंग की इजाजत मांगने लगे। 7.34 में पालम पर ही वापस लैंड किया। पाया गया कि गलत हैंडलिंग के कारण विमान में 'ट्रिम फेल्योर’ हो गया जिस वजह से विमान का नियंत्रण खो चुका था। एयरपोर्ट अथॉरिटी ने इस खराबी के बारे में डीजीसीए को फौरन ही इत्तिला कर दी। लेकिन विमान में खराबी क्यों आई? प्रदेश की मुख्यमंत्री को इन तथ्यों की जानकारी नहीं दी जाती। लखनऊ में बसपाई रैली के दिन उसी अमेरिकी हेलीकॉप्टर से शशांक शेखर उन्हें रैली स्थल तक ले गए थे, जिस दिन मायावती ने मंच से कहा था, 'मेरी जान को खतरा है...’
प्रभात रंजन दीन
बिहार में क्या मुद्दा नहीं है
बिहार सम्पूर्ण भ्रांति में घिसटसामाजिक अन्याय का प्रदेश रहा हैता हुआ भीषण , रखा गया है और उसे ऐसा ही बनाए रखा जाएगा। आजादी के बाद से अब तक जितने भी 31 मुख्यमंत्री हुए, श्रीकृष्ण सिंह से लेकर कृष्ण वल्लभ सहाय, बीपी मंडल और कर्पूरी ठाकुर, जगन्नाथ मिश्र से लेकर लालू यादव और नीतीश कुमार तक सब एक ही धूर्त नस्ल के रहे हैं। इनकी मक्कारी के कारण पैदा होती रही सिलसिलेवार वजहों से बिहार आज इस दुर्दशा तक पहुंचा है और विध्वंस की चरम स्थिति तक जल्दी ही पहुंचने वाला है। बिहार की इस नकारात्मक विकास-यात्रा के संवाहक लीडरों में इतनी भी पुंसकता नहीं कि वे इस पर सार्थक बहस में उतरने का साहस करें। वे बहस में उतरने का केवल स्वांग भरते हैं। दरअसल वे बहस में नहीं, कलह में उतरते हैं। एक दूसरे को गरियाते हैं। बेटी-रोटी करते हैं या कमजोर पड़ने पर हास्य अभिनेता के भौंडे रोल में उतरने से जरा भी नहीं हिचकते। बिहार में बाढ़ मुद्दा जरूर है। लेकिन आप बताएं कि बिहार में क्या मुद्दा नहीं है। यह अलग बात है कि मुद्दा बनता नहीं है...
बिहार में बाढ़ को लेकर तमाम अखबारों में खबरें आ रही हैं। विजुअल मीडिया भी बिहार की बाढ़ पर पिला पड़ा है। बाढ़ की त्रासदी को लेकर चाहे प्रिंट मीडिया हो या विजुअल मीडिया, दोनों ही अपनी संवेदनशीलता दिखा रहे हैं, या दोनों ही, बाढ़-त्रासदी को बाजार में बेच रहे हैं। बिहार में बाढ़ अभी प्रलय का रूप नहीं ले रही है। लेकिन वह समय भी जल्दी ही आने वाला है जब बिहार केवल भारत के नक्शे की निशानी के बतौर रह जाएगा और वहां कोशी, बागमती और बूढ़ी गंडक जैसी नदियां हहराती हुई गंगा की धार में मिलती बहती दिखेंगी और बिहार तल में होगा। सम्पूर्ण मीडिया बाढ़ के प्रकोप और उससे आक्रांत लोगों की त्रासदी दिखा रहा है, प्रशासनिक नाकामियां और नेपाल की बदमाशियां दिखा रहा है, लेकिन असली जख्म कहां है, मीडिया को दिख नहीं रहा, इसलिए दिखा नहीं रहा। आम फहम बात चलती है कि राजनीतिक रूप से बिहार बहुत ही जागरूक प्रदेश है। लेकिन आप मानें कि बिहार के लोग राजनीतिक-सामाजिक जागरूकता की दृष्टि से बिल्कुल मूढ़ हैं। उन्हें जागरूक बता-बता कर कुछ नेताओं ने बिहार के लोगों को बेवकूफ बनाया है, उन्हें बेचा है। इतना बेचा कि आज बिहारियों की कोई कीमत और कोई वकत नहीं रह गई। जिस प्रदेश के लोग आजादी के बाद से आज तक अपने सरोकारों के प्रति जागरूक नहीं हो पाए, जो अधिकार-अधिकार का प्रलाप करते रहे और अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं हो पाए, जिन्हें सड़क-बांध और नदियों-नालों की सुरक्षा के प्रति कोई जागरूक-चिंता नहीं रही, जो जानवर की हद तक जाकर जीने के लिए तैयार होते रहे, उस नागरिक-जमात को जागरूक बताना उसे बेवकूफ बनाना ही तो है। बुद्ध-महावीर की धरती, चाणक्य और चंद्रगुप्त की धरती, अंगराज कर्ण और महावीर जरासंध की धरती, महान अशोक की धरती, वीर कुंअर सिंह की धरती, खुदीराम बोस की धरती, राजेंद्र प्रसाद और जयप्रकाश नारायण की धरती, दिनकर और गोपाल सिंह नेपाली की धरती... और जाने क्या-क्या बता बता कर इस प्रदेश में मूढ़ता का सुनियोजित सृजन किया गया। पूर्वज हाथी पालते थे, हम हाथी बांधने की जंजीरें भांजने की नितांत मूर्ख हरकतों में लगे हैं। विडम्बना यह है कि बिहार के लोगों को जागरूक बता कर सामाजिक-मूढ़ता का नियोजित विस्तार करने वाले वे सारे 'लीडर’ उत्तर-स्वतंत्रता-काल से लेकर बिहार की सम्पूर्ण क्रांति और सामाजिक न्याय तक के स्वयंभू ठेकेदार हैं। उनके घर बाढ़ में नहीं बहते। उनके बच्चे राहत सामग्री के लिए टकटकी बांधे नहीं रहते। उनके घर की महिलाओं को बाढ़ के पानी में जंघा तक कपड़े उठाए चलने की व्यथा नहीं झेलनी पड़ती। वे हेलीकॉप्टर से फेंकी गई कृपादृष्टि और राहत सामग्री के कातर पात्र नहीं। वे तो उड़नखटोले पर विचरण करते हुए भेंड़-बकरियों के सदृश बिहार के लोगों पर सामाजिक न्याय की समग्र दृष्टि डालते हैं। बात सुनने में कड़वी जरूर है, लेकिन हेलीकॉप्टर में दूरबीन लिए बैठे नेता को हेलीकॉप्टर की चक्रवाती हवा में महिलाओं के उड़ते बिखरते कपड़ों को देखते और कुत्सित मौज लेते मीडिया के न जाने कितने साथियों ने देखा होगा, लेकिन यह उनके लिए मुद्दा नहीं है। बात सुनने और कहने दोनों में कड़वी है, लेकिन इससे कब तक बचेंगे! सच को दबाए रखने और छद्म को उघारे रखने के कारण ही तो बिहार की यह दशा हुई है।
बिहार सम्पूर्ण भ्रांति में घिसटता हुआ भीषण सामाजिक अन्याय का प्रदेश रहा है, रखा गया है और उसे ऐसा ही बनाए रखा जाएगा। आजादी के बाद से अब तक जितने भी 31 मुख्यमंत्री हुए, श्रीकृष्ण सिंह से लेकर कृष्ण वल्लभ सहाय, बीपी मंडल और कर्पूरी ठाकुर, जगन्नाथ मिश्र से लेकर लालू यादव और नीतीश कुमार तक सब एक ही धूर्त नस्ल के रहे हैं। इनकी मक्कारी के कारण पैदा होती रही सिलसिलेवार वजहों से बिहार आज इस दुर्दशा तक पहुंचा है और विध्वंस की चरम स्थिति तक जल्दी ही पहुंचने वाला है। पूछिए कर्पूरी ठाकुर के समकालीन किसी भी राजनीतिक या समाजसेवी से। अगर वह आपको ईमानदारी से बताए कि कैसे वे चूड़ा-दही जीम कर सुबह-सुबह पिछले दरवाजे से निकल जाते थे। अपने कुर्ते की जेब में दतवन [दातुन] रखते थे। उनके घर जनता का जमावड़ा लग जाता तो करीब बारह-एक बजे वे सामने के रास्ते से परेशान-हाल दतवन करते पैदल आते दिखते। जनता स्तब्ध उन्हें देखती रहती और कर्पूरी जी उन्हें समझाते, 'आप ही लोगों के काम में सुबह से लगा रहता हूं, मुंह तक धोने का टाइम नहीं मिलता।’ चमत्कृत लोग अपनी बात बताना भी भूल जाते और फिर भी प्रभावित होकर जाते कि लीडर जनता के काम में इतना व्यस्त है कि दोपहर तक मुंह भी नहीं धो पाता। इस तरह के नियोजित छद्म से ही बिहार के नेताओं की दुकानें चलती रही हैं। जब जननायकों की छवि वाले लीडरों का यह असली चेहरा था तो लालू-नीतीश जैसे नेताओं के आडम्बर के स्तर के बारे में एक बिहारी क्या समस्त देशवासी आसानी से समझ सकता है। लालू-राबड़ी शासनकाल में सड़कों की दुर्दशा के बारे में उनसे पूछा जाता था, तो लालू सामाजिक न्याय की नायाब परिभाषाएं रचते थे। पक्की सड़क को सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक बताते थे और लोगों को सावधान करते थे कि पक्की सड़कें बनीं तो पुलिस गांव तक पहुंच जाएगी। बिहार के विकास-पुरूष लालू पक्की सड़क और ठोस ढांचे का विरोध करते हुए, चारा खाते हुए अपना ढांचा ठोस करने में कामयाब रहे। ललित नारायण मिश्र की हत्या पर चुप्पी साधे रहने के एवज में मुख्यमंत्री का पद पाए शिक्षक डॉ. जगन्नाथ मिश्र की वैभव यात्रा, फुलवारीशरीफ के पशुपालन विभाग के सीलन भरे कमरे में जिंदगी जीने वाले निम्न दर्जे के छात्र रहे लालू यादव और राजेंद्र नगर से कंकड़बाग तक किराए का कमरा ढूंढ़ने वाले नीतीश कुमार के भौतिक उठान और चारित्रिक गिरान का ग्राफ आपको बिहार की सड़कों और बांधों के जर्जर होने की कहानी तो बता ही रहा है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण कहता है कि प्रखरता और मूढ़ता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। 'इंटेलिजेंस’ और 'इडियॉसी’ दोनों साथ-साथ ही चलती है। बिहार में 'इंटेलिजेंस’ का दौर कभी था। अभी 'इडियॉसी’ का दौर चल रहा है। या कहें 'इंटेलिजेंस’ आजादी के बाद बिहार पर राज करने वाले राजनीतिकों के ठेके में रही और 'इडियॉसी’ बिहार के आम आदमी के मत्थे मढ़ी जाती रही। बिहार में बाढ़ मुद्दा जरूर है। लेकिन आप बताएं कि बिहार में क्या मुद्दा नहीं है। यह अलग बात है कि मुद्दा बनता नहीं है। क्या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बाढ़ से राहत दिलाने में असमर्थता जताना राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है? अपने शासन के लम्बे 15 अराजक साल भूल कर नीतीश कुमार पर लालू यादव का कटाक्ष करना क्या मुद्दा नहीं? नेपाल की तरफ से कोशी का पानी लगातार छोड़े जाने के कृत्य के खिलाफ केंद्र सरकार का कूटनीतिक हस्तक्षेप न करना क्या मुद्दा नहीं है? 31 मुख्यमंत्रियों से बिहार के विकास और उनके व्यक्तिगत विकास का फर्क पूछने और पाई-पाई हिसाब लिए जाने का मुद्दा न तो कभी मीडिया को दिखा है और न धंधा करने वाले सामाजिक संगठनों को। बिहार में तमाम किस्म की अधोवृत्तियां कर रही राजनीतिक पार्टियों से तो कुछ सकारात्मक लोकतांत्रिक अपेक्षा रखना वैसा ही है जैसे बिहारियों को बहुत जागरूक बता कर लल्लू का उल्लू साधना। बिहार की इस नकारात्मक विकास-यात्रा के संवाहक लीडरों में इतनी भी पुंसकता नहीं कि वे इस पर सार्थक बहस में उतरने का साहस करें। वे बहस में उतरने का केवल स्वांग भरते हैं। दरअसल वे बहस में नहीं, कलह में उतरते हैं। एक दूसरे को गरियाते हैं। बेटी-रोटी करते हैं या कमजोर पड़ने पर हास्य अभिनेता के भौंडे रोल में उतरने से जरा भी नहीं हिचकते। बाढ़ तो बिहार के लिए मौसम की तरह है। आजादी के बाद से आज तक बांधों की कोई देखरेख नहीं हुई। अब तक 31 मुख्यमंत्री आए और गए। जो बिहार को कायदे से जानते समझते हैं, बिहार के भूगोल का ज्ञान और बिहारी नेताओं का मनोविज्ञान समझते हैं, वे यह जानते हैं कि प्रदेश के सारे बांध अतिक्रमण में है। बांधों पर लोगों के घर बने हैं। बंधे काट-काट कर खेतों में मिला दिए गए हैं। बांध पशुओं के बांधने और उनका चारा-भूंसा रखने की जगह बन चुके हैं। पशुओं का चारा-भूंसा रखने की वजह से चूहे उन जगहों को पोपला कर चुके हैं। हर साल जब नदियां उफनाती हैं तो उन पोपले स्थानों से मैदान में उतर कर सामाजिक न्याय का खौफनाक दृश्य दिखाती हैं। उसी सामाजिक न्याय का, जिसकी दलीलें देकर लालू जैसे नेता बांधों पर ग्रामीणों के अतिक्रमण को उचित ठहराते रहे हैं और बाढ़ आने पर मीडिया के समक्ष बड़े गौरव बोध से कहते रहे हैं, 'ई बाढ़ आप लोगों के लिए न मौसमी खबर है। ई आता है तो महीना दू महीना ई गांव वाला सब को सब्जी का इंतजाम नहीं न करना पड़ता है। मछली का पूरा इंतजाम रहता है, सब लोग खूब मौज में पिकनिक मनाता है। आप लोग बाढ़-बाढ़ करते रहिए।’ लालू के शासनकाल में बिहार में बाढ़ मछलियां और ग्रामीणों के लिए 'पिकनिक’ लेकर आती है, लेकिन नीतीश के शासन में विपदा। यही बिहार के राजनीतिकों का असली स्तर है। इनसे आप अपेक्षा कर सकते हैं कि ये किसी मुद्दे पर गम्भीर हों, सार्थक बहस में उतर सकें और उसके समाधान का शिद्दत से रास्ता तलाश सकें!
बिहार की नदियों का जायजा लें। शहर के नाम पर स्लम का विस्तार पूरे प्रदेश को ग्रस चुका है। नदियां सिमटती चली गईं। करीब करीब सभी नदियों ने बिहार में अपना पाट छोड़ दिया है। अब पता ही नहीं चलता कि नेताओं के चरित्र की तरह नदियों के पाट कहां खो गए। नदियों के तल मलबों और शहरी व कस्बाई कचरों से भर रहे हैं। तालाब और झीलें रहने के लिए भर कर समतल बना डाली गइं, तो आप क्या सोचते हैं कि नदियों का पानी अपने मूल स्रोत से बढ़ेगा तो कहां जाएगा? पानी को तो बहना ही है, तो वह पूरे बिहार के ऊपर से बहेगा। आप याद करिए, गंगा के किनारे बसी राजधानी पटना का पुराना दृश्य। हहराती लहराती गंगा पटना में कितना मनोरम दृश्य दिखाती थी। हरियाली से घिरे शहर के किनारे गंगा में बड़े बड़े जहाज ऐसे चलते थे जैसे मिसीसीपी नदी, टेम्स या नील नदी में चलते हों। गंगा का पानी ऐसा साफ कि अंजुरी भर कर पी लें। आज बिहारियों के मल-मूत्र से भरी गंगा क्या आपको नहीं दिखती? मिसीसीपी, टेम्स वगैरह तो आज भी अपने मौलिक स्वच्छ स्वरूप में है लेकिन पटना की गंगा कहां सिमट गई, कभी सोचा है इसे? अगर सोचा गया तो क्या इसे कभी मुद्दा बनाया गया? अगर गंगा में बाढ़ आई और सोन नदी को गुस्सा आया तो पटना का क्या होगा। सत्तर के दशक में आई बाढ़ के बाद तो पटना के लोगों ने हर बारिश में ही उतना पानी, उतनी बीमारी और उतनी राजनीतिक बेचारगी झेल ली।
बिहार की बांधें इसलिए जर्जर हैं क्योंकि वहां के लोग जर्जर हैं। बिहार की नदियां मलबे और गंदगियों से इसलिए भरती चली जा रही हैं क्योंकि बिहार के लोग खुद कचरा हैं। बिहार के नेता इसलिए स्खलित हैं क्योंकि हम आप स्खलित हैं। हम हीन हैं। हम सामाजिक न्याय जैसी मक्कार शब्दावलियों की साजिश के शिकार हैं। बिहार के लोगों को कितना न्याय मिल गया, वह सब सामने है। पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र व अन्य राज्य के लोगों को पंजाबी, बंगाली, मराठी वगैरह कहने में गर्व होता है, पर बिहार के लोगों को खुद को बिहारी कहने में शर्म आती है। बिहार के क्षुद्र लीडर बिहार के लोगों में बिहारी होने के ऐतिहासिक गौरवबोध की स्कूलिंग तक नहीं कर पाए, आत्मसम्मान नहीं जाग्रत करा पाए, स्वाभिमान और स्वावलम्बन नहीं दे पाए, रोटी के लिए मारा-मारा फिरने के लिए छोड़ दिया, उस राज्य के लोगों को असम से लेकर महाराष्ट्र तक अपमानित तो होना ही पड़ेगा। यह लालू-कर्पूरी मंडल का सामाजिक न्याय ही तो है। टुकड़ों में विभक्त, टुकड़े के लिए लालायित!
हममें सच स्वीकार करने का माद्दा नहीं। विज्ञान का नियम जीवन पर लागू होता है, कम से कम उसे तो मानें। हम जैसा चरित्र और व्यवहार रखते हैं, करते हैं, प्रकृति वैसा ही व्यवहार और चरित्र हमें प्रत्यावर्तित करती है। आप याद करें वही सहरसा मधेपुरा जहां के लोग आज भीषण बाढ़ से आक्रांत हैं, वहां कभी अस्सी के दशक में बदला घाट रेल हादसा हुआ था। पूरी की पूरी ट्रेन पुल से कोशी नदी में जा गिरी। हजारों लोग मरे थे। महिलाएं बच्चे सब उफनाई कोशी की धार में बह गए थे। कोशी की धार ऐसी कि उसमें गिरे डिब्बे जब बाहर निकाले गए तो वे स्क्रू की तरह घूमे हुए पाए गए थे। हादसे में जो लोग तैर कर जान बचा सकते थे, वे भी नहीं बच पाए। तैर कर किनारे पहुंचने पर मधेपुरा के लोग उन्हें खुरपियों और कुदाल से काट कर मार डालते और उनकी घड़ियां, पैसे और जेवर वगैरह लूट लेते। हैवानियत का नंगा बर्बर दृश्य अब भी लोगों की रूह कंपा देता है। जब पुलिस ने मधेपुरा सहरसा के गांवों में छापामारी की तो घरों में घड़े भर-भर के घड़ियां बरामद की गई थीं। सोने जेवरात और अन्य सामान की तो पूछिए मत। यानी जितनी घड़ियां उतनी हत्याएं की थीं लोगों ने। गांवों में चादरों पर घड़ियां फैला कर सुखाई जाती हुई बरामद की गई थीं। आज वह पूरा इलाका बाढ़ से लबालब है। वही कोशी है और वही उसकी धार है। बात अलग धरा की है लेकिन आधार की है। निराधार नहीं। बिहार में फैली सड़ांध हमारे ही व्यक्तित्वों और कृतित्वों का प्रत्यावर्तन है। बिहार को गर्त में धकेलने वाले नेता भी बिहार के लोगों का ही 'रिफ्लेक्शन’ हैं। सामाजिक न्याय विद्रूप हुआ तो प्राकृतिक न्याय असंतुलित हो गया। प्रतीक्षा के बाद भी बारिश नहीं, अनिच्छा के बावजूद बाढ़। स्खलित सियासत का प्रतिबिम्ब प्राकृतिक-चर्या पर आप साफ-साफ देखिए।
लालू यादव अब इस बात पर कलह कर रहे हैं कि बाढ़ प्रभावित लोग भाग कर राजधानी पटना पहुंचें। लालू इस प्राकृतिक आपदा के समय भी अराजकता भरी सियासत का विस्तार करने का कुचक्र रच रहे हैं। बाढ़ से आक्रांत लोग राजधानी के लोगों को घरों में सुख से रहता हुआ नहीं देख पाएंगे। बिहार के नेता बिहार के लोगों को गृह युद्ध की तरफ या सामूहिक आत्महत्या की तरफ धकेल रहे हैं। परस्पर हत्या या आत्महत्या का एक खौफनाक दौर शुरू होने का अंदेशा गहराता जा रहा है। नेताओं की साजिश इसी बात की है। गिद्धों का भोजन इसी सामूहिक आत्महत्या से चलने वाला है। कफन की दुकानें इसी सामूहिक खुदकुशियों से चल निकलने वाली हैं। इस खौफनाक दौर को हम समय रहते रोक लें, या पक्के बिहारी बने रहें और भुनभुनाते रहें...
हक अच्छा पर उसके लिए कोई और मरे तो और अच्छा
तुम भी कोई मंसूर हो जो सूली पे चढ़ो... खामोश रहो
आंखें मूंद किनारे बैठो, मन के रखो बंद किवाड़
इंशा जी लो धागा ले लो, लब सी लो, खामोश रहो...
बिहार में बाढ़ को लेकर तमाम अखबारों में खबरें आ रही हैं। विजुअल मीडिया भी बिहार की बाढ़ पर पिला पड़ा है। बाढ़ की त्रासदी को लेकर चाहे प्रिंट मीडिया हो या विजुअल मीडिया, दोनों ही अपनी संवेदनशीलता दिखा रहे हैं, या दोनों ही, बाढ़-त्रासदी को बाजार में बेच रहे हैं। बिहार में बाढ़ अभी प्रलय का रूप नहीं ले रही है। लेकिन वह समय भी जल्दी ही आने वाला है जब बिहार केवल भारत के नक्शे की निशानी के बतौर रह जाएगा और वहां कोशी, बागमती और बूढ़ी गंडक जैसी नदियां हहराती हुई गंगा की धार में मिलती बहती दिखेंगी और बिहार तल में होगा। सम्पूर्ण मीडिया बाढ़ के प्रकोप और उससे आक्रांत लोगों की त्रासदी दिखा रहा है, प्रशासनिक नाकामियां और नेपाल की बदमाशियां दिखा रहा है, लेकिन असली जख्म कहां है, मीडिया को दिख नहीं रहा, इसलिए दिखा नहीं रहा। आम फहम बात चलती है कि राजनीतिक रूप से बिहार बहुत ही जागरूक प्रदेश है। लेकिन आप मानें कि बिहार के लोग राजनीतिक-सामाजिक जागरूकता की दृष्टि से बिल्कुल मूढ़ हैं। उन्हें जागरूक बता-बता कर कुछ नेताओं ने बिहार के लोगों को बेवकूफ बनाया है, उन्हें बेचा है। इतना बेचा कि आज बिहारियों की कोई कीमत और कोई वकत नहीं रह गई। जिस प्रदेश के लोग आजादी के बाद से आज तक अपने सरोकारों के प्रति जागरूक नहीं हो पाए, जो अधिकार-अधिकार का प्रलाप करते रहे और अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं हो पाए, जिन्हें सड़क-बांध और नदियों-नालों की सुरक्षा के प्रति कोई जागरूक-चिंता नहीं रही, जो जानवर की हद तक जाकर जीने के लिए तैयार होते रहे, उस नागरिक-जमात को जागरूक बताना उसे बेवकूफ बनाना ही तो है। बुद्ध-महावीर की धरती, चाणक्य और चंद्रगुप्त की धरती, अंगराज कर्ण और महावीर जरासंध की धरती, महान अशोक की धरती, वीर कुंअर सिंह की धरती, खुदीराम बोस की धरती, राजेंद्र प्रसाद और जयप्रकाश नारायण की धरती, दिनकर और गोपाल सिंह नेपाली की धरती... और जाने क्या-क्या बता बता कर इस प्रदेश में मूढ़ता का सुनियोजित सृजन किया गया। पूर्वज हाथी पालते थे, हम हाथी बांधने की जंजीरें भांजने की नितांत मूर्ख हरकतों में लगे हैं। विडम्बना यह है कि बिहार के लोगों को जागरूक बता कर सामाजिक-मूढ़ता का नियोजित विस्तार करने वाले वे सारे 'लीडर’ उत्तर-स्वतंत्रता-काल से लेकर बिहार की सम्पूर्ण क्रांति और सामाजिक न्याय तक के स्वयंभू ठेकेदार हैं। उनके घर बाढ़ में नहीं बहते। उनके बच्चे राहत सामग्री के लिए टकटकी बांधे नहीं रहते। उनके घर की महिलाओं को बाढ़ के पानी में जंघा तक कपड़े उठाए चलने की व्यथा नहीं झेलनी पड़ती। वे हेलीकॉप्टर से फेंकी गई कृपादृष्टि और राहत सामग्री के कातर पात्र नहीं। वे तो उड़नखटोले पर विचरण करते हुए भेंड़-बकरियों के सदृश बिहार के लोगों पर सामाजिक न्याय की समग्र दृष्टि डालते हैं। बात सुनने में कड़वी जरूर है, लेकिन हेलीकॉप्टर में दूरबीन लिए बैठे नेता को हेलीकॉप्टर की चक्रवाती हवा में महिलाओं के उड़ते बिखरते कपड़ों को देखते और कुत्सित मौज लेते मीडिया के न जाने कितने साथियों ने देखा होगा, लेकिन यह उनके लिए मुद्दा नहीं है। बात सुनने और कहने दोनों में कड़वी है, लेकिन इससे कब तक बचेंगे! सच को दबाए रखने और छद्म को उघारे रखने के कारण ही तो बिहार की यह दशा हुई है।
बिहार सम्पूर्ण भ्रांति में घिसटता हुआ भीषण सामाजिक अन्याय का प्रदेश रहा है, रखा गया है और उसे ऐसा ही बनाए रखा जाएगा। आजादी के बाद से अब तक जितने भी 31 मुख्यमंत्री हुए, श्रीकृष्ण सिंह से लेकर कृष्ण वल्लभ सहाय, बीपी मंडल और कर्पूरी ठाकुर, जगन्नाथ मिश्र से लेकर लालू यादव और नीतीश कुमार तक सब एक ही धूर्त नस्ल के रहे हैं। इनकी मक्कारी के कारण पैदा होती रही सिलसिलेवार वजहों से बिहार आज इस दुर्दशा तक पहुंचा है और विध्वंस की चरम स्थिति तक जल्दी ही पहुंचने वाला है। पूछिए कर्पूरी ठाकुर के समकालीन किसी भी राजनीतिक या समाजसेवी से। अगर वह आपको ईमानदारी से बताए कि कैसे वे चूड़ा-दही जीम कर सुबह-सुबह पिछले दरवाजे से निकल जाते थे। अपने कुर्ते की जेब में दतवन [दातुन] रखते थे। उनके घर जनता का जमावड़ा लग जाता तो करीब बारह-एक बजे वे सामने के रास्ते से परेशान-हाल दतवन करते पैदल आते दिखते। जनता स्तब्ध उन्हें देखती रहती और कर्पूरी जी उन्हें समझाते, 'आप ही लोगों के काम में सुबह से लगा रहता हूं, मुंह तक धोने का टाइम नहीं मिलता।’ चमत्कृत लोग अपनी बात बताना भी भूल जाते और फिर भी प्रभावित होकर जाते कि लीडर जनता के काम में इतना व्यस्त है कि दोपहर तक मुंह भी नहीं धो पाता। इस तरह के नियोजित छद्म से ही बिहार के नेताओं की दुकानें चलती रही हैं। जब जननायकों की छवि वाले लीडरों का यह असली चेहरा था तो लालू-नीतीश जैसे नेताओं के आडम्बर के स्तर के बारे में एक बिहारी क्या समस्त देशवासी आसानी से समझ सकता है। लालू-राबड़ी शासनकाल में सड़कों की दुर्दशा के बारे में उनसे पूछा जाता था, तो लालू सामाजिक न्याय की नायाब परिभाषाएं रचते थे। पक्की सड़क को सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक बताते थे और लोगों को सावधान करते थे कि पक्की सड़कें बनीं तो पुलिस गांव तक पहुंच जाएगी। बिहार के विकास-पुरूष लालू पक्की सड़क और ठोस ढांचे का विरोध करते हुए, चारा खाते हुए अपना ढांचा ठोस करने में कामयाब रहे। ललित नारायण मिश्र की हत्या पर चुप्पी साधे रहने के एवज में मुख्यमंत्री का पद पाए शिक्षक डॉ. जगन्नाथ मिश्र की वैभव यात्रा, फुलवारीशरीफ के पशुपालन विभाग के सीलन भरे कमरे में जिंदगी जीने वाले निम्न दर्जे के छात्र रहे लालू यादव और राजेंद्र नगर से कंकड़बाग तक किराए का कमरा ढूंढ़ने वाले नीतीश कुमार के भौतिक उठान और चारित्रिक गिरान का ग्राफ आपको बिहार की सड़कों और बांधों के जर्जर होने की कहानी तो बता ही रहा है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण कहता है कि प्रखरता और मूढ़ता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। 'इंटेलिजेंस’ और 'इडियॉसी’ दोनों साथ-साथ ही चलती है। बिहार में 'इंटेलिजेंस’ का दौर कभी था। अभी 'इडियॉसी’ का दौर चल रहा है। या कहें 'इंटेलिजेंस’ आजादी के बाद बिहार पर राज करने वाले राजनीतिकों के ठेके में रही और 'इडियॉसी’ बिहार के आम आदमी के मत्थे मढ़ी जाती रही। बिहार में बाढ़ मुद्दा जरूर है। लेकिन आप बताएं कि बिहार में क्या मुद्दा नहीं है। यह अलग बात है कि मुद्दा बनता नहीं है। क्या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बाढ़ से राहत दिलाने में असमर्थता जताना राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है? अपने शासन के लम्बे 15 अराजक साल भूल कर नीतीश कुमार पर लालू यादव का कटाक्ष करना क्या मुद्दा नहीं? नेपाल की तरफ से कोशी का पानी लगातार छोड़े जाने के कृत्य के खिलाफ केंद्र सरकार का कूटनीतिक हस्तक्षेप न करना क्या मुद्दा नहीं है? 31 मुख्यमंत्रियों से बिहार के विकास और उनके व्यक्तिगत विकास का फर्क पूछने और पाई-पाई हिसाब लिए जाने का मुद्दा न तो कभी मीडिया को दिखा है और न धंधा करने वाले सामाजिक संगठनों को। बिहार में तमाम किस्म की अधोवृत्तियां कर रही राजनीतिक पार्टियों से तो कुछ सकारात्मक लोकतांत्रिक अपेक्षा रखना वैसा ही है जैसे बिहारियों को बहुत जागरूक बता कर लल्लू का उल्लू साधना। बिहार की इस नकारात्मक विकास-यात्रा के संवाहक लीडरों में इतनी भी पुंसकता नहीं कि वे इस पर सार्थक बहस में उतरने का साहस करें। वे बहस में उतरने का केवल स्वांग भरते हैं। दरअसल वे बहस में नहीं, कलह में उतरते हैं। एक दूसरे को गरियाते हैं। बेटी-रोटी करते हैं या कमजोर पड़ने पर हास्य अभिनेता के भौंडे रोल में उतरने से जरा भी नहीं हिचकते। बाढ़ तो बिहार के लिए मौसम की तरह है। आजादी के बाद से आज तक बांधों की कोई देखरेख नहीं हुई। अब तक 31 मुख्यमंत्री आए और गए। जो बिहार को कायदे से जानते समझते हैं, बिहार के भूगोल का ज्ञान और बिहारी नेताओं का मनोविज्ञान समझते हैं, वे यह जानते हैं कि प्रदेश के सारे बांध अतिक्रमण में है। बांधों पर लोगों के घर बने हैं। बंधे काट-काट कर खेतों में मिला दिए गए हैं। बांध पशुओं के बांधने और उनका चारा-भूंसा रखने की जगह बन चुके हैं। पशुओं का चारा-भूंसा रखने की वजह से चूहे उन जगहों को पोपला कर चुके हैं। हर साल जब नदियां उफनाती हैं तो उन पोपले स्थानों से मैदान में उतर कर सामाजिक न्याय का खौफनाक दृश्य दिखाती हैं। उसी सामाजिक न्याय का, जिसकी दलीलें देकर लालू जैसे नेता बांधों पर ग्रामीणों के अतिक्रमण को उचित ठहराते रहे हैं और बाढ़ आने पर मीडिया के समक्ष बड़े गौरव बोध से कहते रहे हैं, 'ई बाढ़ आप लोगों के लिए न मौसमी खबर है। ई आता है तो महीना दू महीना ई गांव वाला सब को सब्जी का इंतजाम नहीं न करना पड़ता है। मछली का पूरा इंतजाम रहता है, सब लोग खूब मौज में पिकनिक मनाता है। आप लोग बाढ़-बाढ़ करते रहिए।’ लालू के शासनकाल में बिहार में बाढ़ मछलियां और ग्रामीणों के लिए 'पिकनिक’ लेकर आती है, लेकिन नीतीश के शासन में विपदा। यही बिहार के राजनीतिकों का असली स्तर है। इनसे आप अपेक्षा कर सकते हैं कि ये किसी मुद्दे पर गम्भीर हों, सार्थक बहस में उतर सकें और उसके समाधान का शिद्दत से रास्ता तलाश सकें!
बिहार की नदियों का जायजा लें। शहर के नाम पर स्लम का विस्तार पूरे प्रदेश को ग्रस चुका है। नदियां सिमटती चली गईं। करीब करीब सभी नदियों ने बिहार में अपना पाट छोड़ दिया है। अब पता ही नहीं चलता कि नेताओं के चरित्र की तरह नदियों के पाट कहां खो गए। नदियों के तल मलबों और शहरी व कस्बाई कचरों से भर रहे हैं। तालाब और झीलें रहने के लिए भर कर समतल बना डाली गइं, तो आप क्या सोचते हैं कि नदियों का पानी अपने मूल स्रोत से बढ़ेगा तो कहां जाएगा? पानी को तो बहना ही है, तो वह पूरे बिहार के ऊपर से बहेगा। आप याद करिए, गंगा के किनारे बसी राजधानी पटना का पुराना दृश्य। हहराती लहराती गंगा पटना में कितना मनोरम दृश्य दिखाती थी। हरियाली से घिरे शहर के किनारे गंगा में बड़े बड़े जहाज ऐसे चलते थे जैसे मिसीसीपी नदी, टेम्स या नील नदी में चलते हों। गंगा का पानी ऐसा साफ कि अंजुरी भर कर पी लें। आज बिहारियों के मल-मूत्र से भरी गंगा क्या आपको नहीं दिखती? मिसीसीपी, टेम्स वगैरह तो आज भी अपने मौलिक स्वच्छ स्वरूप में है लेकिन पटना की गंगा कहां सिमट गई, कभी सोचा है इसे? अगर सोचा गया तो क्या इसे कभी मुद्दा बनाया गया? अगर गंगा में बाढ़ आई और सोन नदी को गुस्सा आया तो पटना का क्या होगा। सत्तर के दशक में आई बाढ़ के बाद तो पटना के लोगों ने हर बारिश में ही उतना पानी, उतनी बीमारी और उतनी राजनीतिक बेचारगी झेल ली।
बिहार की बांधें इसलिए जर्जर हैं क्योंकि वहां के लोग जर्जर हैं। बिहार की नदियां मलबे और गंदगियों से इसलिए भरती चली जा रही हैं क्योंकि बिहार के लोग खुद कचरा हैं। बिहार के नेता इसलिए स्खलित हैं क्योंकि हम आप स्खलित हैं। हम हीन हैं। हम सामाजिक न्याय जैसी मक्कार शब्दावलियों की साजिश के शिकार हैं। बिहार के लोगों को कितना न्याय मिल गया, वह सब सामने है। पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र व अन्य राज्य के लोगों को पंजाबी, बंगाली, मराठी वगैरह कहने में गर्व होता है, पर बिहार के लोगों को खुद को बिहारी कहने में शर्म आती है। बिहार के क्षुद्र लीडर बिहार के लोगों में बिहारी होने के ऐतिहासिक गौरवबोध की स्कूलिंग तक नहीं कर पाए, आत्मसम्मान नहीं जाग्रत करा पाए, स्वाभिमान और स्वावलम्बन नहीं दे पाए, रोटी के लिए मारा-मारा फिरने के लिए छोड़ दिया, उस राज्य के लोगों को असम से लेकर महाराष्ट्र तक अपमानित तो होना ही पड़ेगा। यह लालू-कर्पूरी मंडल का सामाजिक न्याय ही तो है। टुकड़ों में विभक्त, टुकड़े के लिए लालायित!
हममें सच स्वीकार करने का माद्दा नहीं। विज्ञान का नियम जीवन पर लागू होता है, कम से कम उसे तो मानें। हम जैसा चरित्र और व्यवहार रखते हैं, करते हैं, प्रकृति वैसा ही व्यवहार और चरित्र हमें प्रत्यावर्तित करती है। आप याद करें वही सहरसा मधेपुरा जहां के लोग आज भीषण बाढ़ से आक्रांत हैं, वहां कभी अस्सी के दशक में बदला घाट रेल हादसा हुआ था। पूरी की पूरी ट्रेन पुल से कोशी नदी में जा गिरी। हजारों लोग मरे थे। महिलाएं बच्चे सब उफनाई कोशी की धार में बह गए थे। कोशी की धार ऐसी कि उसमें गिरे डिब्बे जब बाहर निकाले गए तो वे स्क्रू की तरह घूमे हुए पाए गए थे। हादसे में जो लोग तैर कर जान बचा सकते थे, वे भी नहीं बच पाए। तैर कर किनारे पहुंचने पर मधेपुरा के लोग उन्हें खुरपियों और कुदाल से काट कर मार डालते और उनकी घड़ियां, पैसे और जेवर वगैरह लूट लेते। हैवानियत का नंगा बर्बर दृश्य अब भी लोगों की रूह कंपा देता है। जब पुलिस ने मधेपुरा सहरसा के गांवों में छापामारी की तो घरों में घड़े भर-भर के घड़ियां बरामद की गई थीं। सोने जेवरात और अन्य सामान की तो पूछिए मत। यानी जितनी घड़ियां उतनी हत्याएं की थीं लोगों ने। गांवों में चादरों पर घड़ियां फैला कर सुखाई जाती हुई बरामद की गई थीं। आज वह पूरा इलाका बाढ़ से लबालब है। वही कोशी है और वही उसकी धार है। बात अलग धरा की है लेकिन आधार की है। निराधार नहीं। बिहार में फैली सड़ांध हमारे ही व्यक्तित्वों और कृतित्वों का प्रत्यावर्तन है। बिहार को गर्त में धकेलने वाले नेता भी बिहार के लोगों का ही 'रिफ्लेक्शन’ हैं। सामाजिक न्याय विद्रूप हुआ तो प्राकृतिक न्याय असंतुलित हो गया। प्रतीक्षा के बाद भी बारिश नहीं, अनिच्छा के बावजूद बाढ़। स्खलित सियासत का प्रतिबिम्ब प्राकृतिक-चर्या पर आप साफ-साफ देखिए।
लालू यादव अब इस बात पर कलह कर रहे हैं कि बाढ़ प्रभावित लोग भाग कर राजधानी पटना पहुंचें। लालू इस प्राकृतिक आपदा के समय भी अराजकता भरी सियासत का विस्तार करने का कुचक्र रच रहे हैं। बाढ़ से आक्रांत लोग राजधानी के लोगों को घरों में सुख से रहता हुआ नहीं देख पाएंगे। बिहार के नेता बिहार के लोगों को गृह युद्ध की तरफ या सामूहिक आत्महत्या की तरफ धकेल रहे हैं। परस्पर हत्या या आत्महत्या का एक खौफनाक दौर शुरू होने का अंदेशा गहराता जा रहा है। नेताओं की साजिश इसी बात की है। गिद्धों का भोजन इसी सामूहिक आत्महत्या से चलने वाला है। कफन की दुकानें इसी सामूहिक खुदकुशियों से चल निकलने वाली हैं। इस खौफनाक दौर को हम समय रहते रोक लें, या पक्के बिहारी बने रहें और भुनभुनाते रहें...
हक अच्छा पर उसके लिए कोई और मरे तो और अच्छा
तुम भी कोई मंसूर हो जो सूली पे चढ़ो... खामोश रहो
आंखें मूंद किनारे बैठो, मन के रखो बंद किवाड़
इंशा जी लो धागा ले लो, लब सी लो, खामोश रहो...
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