02 मई 2008
सरकार की तमाम कोशिशों को धता बताते हुए महंगाई की दर, 19 अप्रैल को समाप्त सप्ताह में बढ़कर 7.57 फीसदी हो गई है। इसके पिछले हफ्ते में यह 7.33 फीसदी पर थी। यह लगातार पांचवा हफ्ता है जब महंगाई की दर सात फीसदी के ऊपर दर्ज की गई है।
मुद्रास्फीति की आज घोषित यह दर पिछले साढ़े तीन सालों में सबसे ज्यादा है। एक हफ्ते में सभी उत्पाद के दाम 0.03 फीसदी बढ़े। हालांकि फल व सब्जियों के दाम कुछ नियंत्रित होते दिखे।
सरकार ने बढ़ती मंहगाई को काबू में करने के लिए कमर कसते हुए पिछले महीने की शुरुआत में खाद्य तेलों के आयात शुल्क में भारी कटौती करने की घोषणा के साथ-साथ चावल तथा दाल के निर्यात पर पाबंदी सख्त करने का फैसला किया था। मक्के की उपलब्धता बढ़ाने के लिए इसके आयात पर शुल्क भी समाप्त कर दिया गया था।
लेकिन इन फैसलों का बड़ा असर असल कीमतों पर पड़ता नहीं दिख रहा है।
Friday, May 2, 2008
Thursday, May 1, 2008
वसुधैव आहार संकटम्
अब चिंता की कोई बात नहीं है। फोटू कमिटी के सामने महंगाई का विरोध करने वालों को जान लेना चाहिए कि अब महंगाई भारत की समस्या नहीं रही। चूंकि अब यह विश्व की समस्या है, इसलिए भारत में इसका हौव्वा भी नहीं खड़ा करना चाहिए। हमारे प्रधानमंत्री ने कहा भी कि इसका हौव्वा खड़ा करने से मुनाफाखोरों–कालाबाजारियों को मदद मिलती है।
बाजार के युग में कहां सरकार कोई कार्रवाई कर सकती है इन पर। फिर अब तो यह आहार संकट भ्रष्टाचार के समान विश्वच्यापी हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने इसे विश्व सकंट मान लिया है।
हमारा अपना बस तो हमारी पंचायत पर तो चलता है नहीं, फिर विश्व को हम क्या राह दिखाएं। जबकि ऐसे मौकों पर दुनिया को रास्ता दिखाना हमारा जिम्मेदारी है। विश्व के सबसे बड़े मॉल में अमेरिका में भी बड़ी उलझन है कि वह विश्व को कौन सी राह दिखाए। अब अमेरिकी डेमोक्रेट एक अश्वेत और औरत में तो फैसला कर नहीं पा रहे हैं। फिर आहार संकट पर कैसे फैसला कर पाएंगे।
पर यही क्या कम बड़ी बात है कि दुनिया भर में खाने पीने की चीजें 40 फीसदी महंगी हो गईं हैं। हमारा देश भी दुनिया में ही है। हम भी संसार के साथ कदम से कदम मिला कर चल रहे हैं।
हम हिंदुस्तानी बड़े ही स्वार्थी और अवसरवादी लोग हैं। हमें हर चीज मुफ्त में चाहिए। यह नहीं समझते कि सामान की बढ़ी हुई कीमत आपके स्टैंडर्ड ऑफ लीविंग को भी तो दर्शाती हैं। अगर इस नजरिए से देखेंगे तो महंगाई आपको तरक्की और प्रगति की पहचान भी दिखेगी।
हमेशा याद रखिए कि संसार को वसुधैव कुटुंबकम का संदेश हमने दिया है। ऐसी हालत में हमारे प्रधानमंत्री की यह भी जिम्मेदारी हो जाती है कि विश्व को आहार संकट से उबारें। भारत को विश्व का नेतृत्व करना है। यह कब तक चलेगा कि विश्व भारत का नेतृत्व करे। पहले विश्व अपना आहार संकट दूर करे। नहीं कर सकता तो हमें विश्व नेता मान ले।
हमारे कृषि मंत्री ने मान लिया है कि इस वर्ष गेहूं की रिकॉर्ड फसल हुई है। सरकार ने भी जम कर गेहूं की खरीद की है। अब आटा सस्ता नहीं हो रहा है तो आप जानते हैं कि पूरी दुनिया खाद्य संकट का सामना कर रही है।
हमारे सेवा कर वित्त मंत्री ने जो कहा वह तो चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र (यहां यह जानकारी देना जरूरी है कि हम पांचवीं पास नहीं हैं। इसलिए न तो यह जानते हैं कि चाणक्य कौन हैं, न यह कि यह अर्थशास्त्र क्या होता है) में भी ऐसा नहीं सोचा होगा जो हमारे वित्त मंत्री ने सोचा कि सरकार कीमतें रोकने के लिए अपनी आमदनी की भी कुर्बानी कर सकती है।
इसे आप सरकारी बोल वचन भर मत समझिए। अब तक आप हर सरकारी बात को सिर्फ बतक ही समझते आए हैं। इस बार सरकार जो कहा सो किया के मूड में है। इसका कारण भी है। अब सरकार को विश्व को राह दिखानी है। बस गर्मी गुजर जाने दीजिए। यहां गर्मी का मतलब ग्लोबल वार्मिंग वाली गर्मी नहीं है। यह कर्नाटक विधान सभा चुनाव की गर्मी है।
इसके बाद ही हम भारत के लोग नेतृत्व करेंगे वसुधैव आहार संकटम् का!
बाजार के युग में कहां सरकार कोई कार्रवाई कर सकती है इन पर। फिर अब तो यह आहार संकट भ्रष्टाचार के समान विश्वच्यापी हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने इसे विश्व सकंट मान लिया है।
हमारा अपना बस तो हमारी पंचायत पर तो चलता है नहीं, फिर विश्व को हम क्या राह दिखाएं। जबकि ऐसे मौकों पर दुनिया को रास्ता दिखाना हमारा जिम्मेदारी है। विश्व के सबसे बड़े मॉल में अमेरिका में भी बड़ी उलझन है कि वह विश्व को कौन सी राह दिखाए। अब अमेरिकी डेमोक्रेट एक अश्वेत और औरत में तो फैसला कर नहीं पा रहे हैं। फिर आहार संकट पर कैसे फैसला कर पाएंगे।
पर यही क्या कम बड़ी बात है कि दुनिया भर में खाने पीने की चीजें 40 फीसदी महंगी हो गईं हैं। हमारा देश भी दुनिया में ही है। हम भी संसार के साथ कदम से कदम मिला कर चल रहे हैं।
हम हिंदुस्तानी बड़े ही स्वार्थी और अवसरवादी लोग हैं। हमें हर चीज मुफ्त में चाहिए। यह नहीं समझते कि सामान की बढ़ी हुई कीमत आपके स्टैंडर्ड ऑफ लीविंग को भी तो दर्शाती हैं। अगर इस नजरिए से देखेंगे तो महंगाई आपको तरक्की और प्रगति की पहचान भी दिखेगी।
हमेशा याद रखिए कि संसार को वसुधैव कुटुंबकम का संदेश हमने दिया है। ऐसी हालत में हमारे प्रधानमंत्री की यह भी जिम्मेदारी हो जाती है कि विश्व को आहार संकट से उबारें। भारत को विश्व का नेतृत्व करना है। यह कब तक चलेगा कि विश्व भारत का नेतृत्व करे। पहले विश्व अपना आहार संकट दूर करे। नहीं कर सकता तो हमें विश्व नेता मान ले।
हमारे कृषि मंत्री ने मान लिया है कि इस वर्ष गेहूं की रिकॉर्ड फसल हुई है। सरकार ने भी जम कर गेहूं की खरीद की है। अब आटा सस्ता नहीं हो रहा है तो आप जानते हैं कि पूरी दुनिया खाद्य संकट का सामना कर रही है।
हमारे सेवा कर वित्त मंत्री ने जो कहा वह तो चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र (यहां यह जानकारी देना जरूरी है कि हम पांचवीं पास नहीं हैं। इसलिए न तो यह जानते हैं कि चाणक्य कौन हैं, न यह कि यह अर्थशास्त्र क्या होता है) में भी ऐसा नहीं सोचा होगा जो हमारे वित्त मंत्री ने सोचा कि सरकार कीमतें रोकने के लिए अपनी आमदनी की भी कुर्बानी कर सकती है।
इसे आप सरकारी बोल वचन भर मत समझिए। अब तक आप हर सरकारी बात को सिर्फ बतक ही समझते आए हैं। इस बार सरकार जो कहा सो किया के मूड में है। इसका कारण भी है। अब सरकार को विश्व को राह दिखानी है। बस गर्मी गुजर जाने दीजिए। यहां गर्मी का मतलब ग्लोबल वार्मिंग वाली गर्मी नहीं है। यह कर्नाटक विधान सभा चुनाव की गर्मी है।
इसके बाद ही हम भारत के लोग नेतृत्व करेंगे वसुधैव आहार संकटम् का!
यार बोर हो गये।
गर्मियों के साथ छुट्टियों का मौसम भी शुरू हो जाता है। इस मौसम में तरह-तरह की बीमारियां फैलती हैं। इसमें एक बीमारी का नाम है, यार बोर हो गये।
यार बोर हो गये मल्टीपलेक्स वाले सिनेमा घरों में देखा जा सकता है। यह बस से ले कर रेल रिजर्वेशन की कतार में खड़ा हुआ पाया जाता है। अगर अभी भी किताब पढ़ते हों तो उसमें पढ़ा जा सकता है यार बोर हो गये।
इसे आप कपड़ों की शक्ल में पहन भी सकते हैं। पसीने के रूप में बहा सकते हैं। पांचवीं पास हैं तो जवाब बना सकते हैं। सांसद हैं तो प्रश्ननुमा भाषण दे सकते हैं। प्रधानमंत्री हैं तो मुनाफाखोरी के खिलाफ अपनी राय दे सकते हैं। इसे आप महंगाई बना कर खूब खाते हुए अनाज संकट पर कह सकते हैं कि यार बोर हो गये।
बोर होने की वजहों का शास्त्रीय सांस्कृतिक सर्वेक्षण के बाद इस नतीजे पर पहुंचा गया है कि इसका संबंध किसी उम्र से नहीं है। सामाजिक–आर्थिक–राजनीतिक सर्वेक्षण इस लिए नहीं किया गया कि उसमें बोर तत्व सनातन काल से शामिल है।
अब आप चाहें तो इसमें आपके घर में जमा हुआ टेलीविजन सेट के कार्यक्रमों को भी जोड़ लीजिए। आप जहां जाएंगे, हमें पाएंगे की शैली में इसे भौंकते हुए पाएंगे यार बोर हो गये।
अलग-अलग सर्वेक्षणकर्ताओं की यह राय जरूर है कि इसका संबंध दांपत्य जीवन से अवश्य है। इसे सर्वेक्षणकर्ताओं ने अनुभव किया है। पर प्रश्न के रूप में पति–पत्नी से पूछ नहीं पाए हैं। इसलिए इसे प्रमाणित नहीं माना जा सकता। फिर भी इस पर अनेक प्रकार के परीक्षण हुए हैं। उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसी पति में या किसी पत्नी में यह साहस नहीं होता कि एक दूसरे से, जरा प्यार से भी कह सकें कि यार बोर हो गये।
दरअसल सर्वेक्षणकर्ताओं ने यह भी पाया कि पतिगण पत्नियों से और पत्नीगण पतियों से सबसे ज्यादा बोर होते हैं। पर कहते नहीं हैं। कहने से बोरियत तो मिट जाती है। लेकिन दांपत्य जीवन का आनंद भी नष्ट हो जाता है।
ऐसी स्थिति में विभिन्न माध्यमों से पड़ोसियों को बोर कर परम आनंद को प्राप्त करते हैं। पड़ोसी धर्म को निभाने वाले अपने यार दोस्तों से जब अपने पड़ोसियों के बारे में बातचीत करते हैं तो उसकी समाप्ति इसी बात पर होती है कि हम अपने पड़ोसी से यार बोर हो गये।
सर्वेक्षणकर्ताओं ने यह भी पाया कि बोरियत को जन्म देने वाले कारणों में हमारे शिक्षण संस्थान भी हैं। अब आचार्य विष्णु शर्मा के पंचतंत्र का काल तो है नहीं कि बोर हुए कुमारों को रसमय कहानियों से शिक्षा दी जाए। अगर रसमय कहानियां बची खुची होती तो उन पर एक सीरियल या फिल्म न बन जाती।
अब तक पाठशाला से ले कर विश्वाविद्यालय हैं। कुछ लोग ऐसे पाठशालाओं को बोरालय भी कहते हैं। पर किसमें हिम्मत है जो कहे कि यार बोर हो गये।
इसे पढ़ कर जोर से कहें यार बोर हो गये!
यार बोर हो गये मल्टीपलेक्स वाले सिनेमा घरों में देखा जा सकता है। यह बस से ले कर रेल रिजर्वेशन की कतार में खड़ा हुआ पाया जाता है। अगर अभी भी किताब पढ़ते हों तो उसमें पढ़ा जा सकता है यार बोर हो गये।
इसे आप कपड़ों की शक्ल में पहन भी सकते हैं। पसीने के रूप में बहा सकते हैं। पांचवीं पास हैं तो जवाब बना सकते हैं। सांसद हैं तो प्रश्ननुमा भाषण दे सकते हैं। प्रधानमंत्री हैं तो मुनाफाखोरी के खिलाफ अपनी राय दे सकते हैं। इसे आप महंगाई बना कर खूब खाते हुए अनाज संकट पर कह सकते हैं कि यार बोर हो गये।
बोर होने की वजहों का शास्त्रीय सांस्कृतिक सर्वेक्षण के बाद इस नतीजे पर पहुंचा गया है कि इसका संबंध किसी उम्र से नहीं है। सामाजिक–आर्थिक–राजनीतिक सर्वेक्षण इस लिए नहीं किया गया कि उसमें बोर तत्व सनातन काल से शामिल है।
अब आप चाहें तो इसमें आपके घर में जमा हुआ टेलीविजन सेट के कार्यक्रमों को भी जोड़ लीजिए। आप जहां जाएंगे, हमें पाएंगे की शैली में इसे भौंकते हुए पाएंगे यार बोर हो गये।
अलग-अलग सर्वेक्षणकर्ताओं की यह राय जरूर है कि इसका संबंध दांपत्य जीवन से अवश्य है। इसे सर्वेक्षणकर्ताओं ने अनुभव किया है। पर प्रश्न के रूप में पति–पत्नी से पूछ नहीं पाए हैं। इसलिए इसे प्रमाणित नहीं माना जा सकता। फिर भी इस पर अनेक प्रकार के परीक्षण हुए हैं। उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसी पति में या किसी पत्नी में यह साहस नहीं होता कि एक दूसरे से, जरा प्यार से भी कह सकें कि यार बोर हो गये।
दरअसल सर्वेक्षणकर्ताओं ने यह भी पाया कि पतिगण पत्नियों से और पत्नीगण पतियों से सबसे ज्यादा बोर होते हैं। पर कहते नहीं हैं। कहने से बोरियत तो मिट जाती है। लेकिन दांपत्य जीवन का आनंद भी नष्ट हो जाता है।
ऐसी स्थिति में विभिन्न माध्यमों से पड़ोसियों को बोर कर परम आनंद को प्राप्त करते हैं। पड़ोसी धर्म को निभाने वाले अपने यार दोस्तों से जब अपने पड़ोसियों के बारे में बातचीत करते हैं तो उसकी समाप्ति इसी बात पर होती है कि हम अपने पड़ोसी से यार बोर हो गये।
सर्वेक्षणकर्ताओं ने यह भी पाया कि बोरियत को जन्म देने वाले कारणों में हमारे शिक्षण संस्थान भी हैं। अब आचार्य विष्णु शर्मा के पंचतंत्र का काल तो है नहीं कि बोर हुए कुमारों को रसमय कहानियों से शिक्षा दी जाए। अगर रसमय कहानियां बची खुची होती तो उन पर एक सीरियल या फिल्म न बन जाती।
अब तक पाठशाला से ले कर विश्वाविद्यालय हैं। कुछ लोग ऐसे पाठशालाओं को बोरालय भी कहते हैं। पर किसमें हिम्मत है जो कहे कि यार बोर हो गये।
इसे पढ़ कर जोर से कहें यार बोर हो गये!
रेस्तरां में खाने जा रहे हैं? सावधान
29 अप्रैल 2008
यदि आप अमेरिका जाने की सोच रहे हैं तो वहां के रेस्तरां में खाने से बचिए। एक नए अध्ययन के अनुसार अमेरिका में लगभग 7.6 करोड़ लोग रेस्तरां में भोजन करने के कारण कई प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हो गए हैं।
वनडर्बिट विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया गया है कि ज्यादातर लोग रेस्तरां में जाने से पहले वहां का कोई निरीक्षण नहीं करते।
लगभग 2000 वयस्कों पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि सभी ऐसा मानते है कि स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा रेस्तराओं का रोजाना निरीक्षण किया जाता है।
शोधकर्ता टिमोथी एफ.जोंस कहते हैं कि, “हमने अध्ययन में पाया कि उपभोक्ताओं को रेस्तराओं के बारे में धारणा रहती कि वहां तो साफ-सुथरा भोजन ही मिलेगा लेकिन उनकी ये धारणा अव्यावहारिक और सरासर गलत है।”
जबकि 50 फीसदी लोग सोचते थे कि साल में पांच से 12 बार वहां अधिकारियों द्वारा दौरा किया जाता है। शोधकर्ताओं ने बताया कि वास्तव में साल में सिर्फ दो बार रेस्तराओं का निरीक्षण किया जाता है। गौरतलब है कि अमेरिका के रेस्तराओं में हर साल 70 अरब डॉलर का खाद्य पदार्थ बिकता है जो कि देश के कुल खाद्य खर्च का 47 फीसदी है।
यदि आप अमेरिका जाने की सोच रहे हैं तो वहां के रेस्तरां में खाने से बचिए। एक नए अध्ययन के अनुसार अमेरिका में लगभग 7.6 करोड़ लोग रेस्तरां में भोजन करने के कारण कई प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हो गए हैं।
वनडर्बिट विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया गया है कि ज्यादातर लोग रेस्तरां में जाने से पहले वहां का कोई निरीक्षण नहीं करते।
लगभग 2000 वयस्कों पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि सभी ऐसा मानते है कि स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा रेस्तराओं का रोजाना निरीक्षण किया जाता है।
शोधकर्ता टिमोथी एफ.जोंस कहते हैं कि, “हमने अध्ययन में पाया कि उपभोक्ताओं को रेस्तराओं के बारे में धारणा रहती कि वहां तो साफ-सुथरा भोजन ही मिलेगा लेकिन उनकी ये धारणा अव्यावहारिक और सरासर गलत है।”
जबकि 50 फीसदी लोग सोचते थे कि साल में पांच से 12 बार वहां अधिकारियों द्वारा दौरा किया जाता है। शोधकर्ताओं ने बताया कि वास्तव में साल में सिर्फ दो बार रेस्तराओं का निरीक्षण किया जाता है। गौरतलब है कि अमेरिका के रेस्तराओं में हर साल 70 अरब डॉलर का खाद्य पदार्थ बिकता है जो कि देश के कुल खाद्य खर्च का 47 फीसदी है।
एड्स : संक्रमण की रोकथाम मुमकिन
एड्सः संक्रमण की रोकथाम मुमकिन
30 अप्रैल 2008
वाशिंगटन। मनुष्य के शरीर की कोशिकाओं में एक ऐसे प्रोटीन का पता लगा लिया गया है जिसे रोककर एचआईवी के संक्रमण को रोका जा सकता है। यह बात एक नए अध्ययन में सामने आई है।
पहले चिकित्सक इसके लिए ‘मल्टीड्रग’ प्रणाली का प्रयोग करते थे जिसमें मरीज को अलग-अलग दवाएं दी जाती हैं। इस पद्धति में ढेरों खतरे थे क्योंकि इसके दुष्परिणाम बहुत अधिक थे।
चूंकि ‘एचआईवी वायरस’ में तेजी से बढ़ने और बदलने की क्षमता होती है। इसलिए वे दवाओं द्वारा आसानी से काबू में नहीं किए जाते। अपने शोध में ‘बोस्टन विश्वविद्यालय’ के एंड्रयू जे. हेंडरसन और ‘एनएचजीआर आई’ संस्था के शोधकर्ताओं ने पाया कि जब वे आईटीके नामक प्रोटीन को रोकने में सफल रहे तो एचआईवी संक्रमण को बढ़ाने वाली ‘टी’ कोशिकाओं की वृद्धि भी रूक गई।
‘नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस’ में प्रकाशित अध्ययन के निष्कर्ष में शोधकर्ता इरिक डी. ग्रीन ने बताया है कि यह ये निष्कर्ष एचआईवी संबंधित शोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।
30 अप्रैल 2008
वाशिंगटन। मनुष्य के शरीर की कोशिकाओं में एक ऐसे प्रोटीन का पता लगा लिया गया है जिसे रोककर एचआईवी के संक्रमण को रोका जा सकता है। यह बात एक नए अध्ययन में सामने आई है।
पहले चिकित्सक इसके लिए ‘मल्टीड्रग’ प्रणाली का प्रयोग करते थे जिसमें मरीज को अलग-अलग दवाएं दी जाती हैं। इस पद्धति में ढेरों खतरे थे क्योंकि इसके दुष्परिणाम बहुत अधिक थे।
चूंकि ‘एचआईवी वायरस’ में तेजी से बढ़ने और बदलने की क्षमता होती है। इसलिए वे दवाओं द्वारा आसानी से काबू में नहीं किए जाते। अपने शोध में ‘बोस्टन विश्वविद्यालय’ के एंड्रयू जे. हेंडरसन और ‘एनएचजीआर आई’ संस्था के शोधकर्ताओं ने पाया कि जब वे आईटीके नामक प्रोटीन को रोकने में सफल रहे तो एचआईवी संक्रमण को बढ़ाने वाली ‘टी’ कोशिकाओं की वृद्धि भी रूक गई।
‘नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस’ में प्रकाशित अध्ययन के निष्कर्ष में शोधकर्ता इरिक डी. ग्रीन ने बताया है कि यह ये निष्कर्ष एचआईवी संबंधित शोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।
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